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शांति / कुलदीप सिंह भाटी

जीवन में
केवल शांति होना
ही पर्याप्त नहीं है।
कुछ शोर
भी होना चाहिए।
शांति भी
तभी तक अच्छी है
जब तक
इंसान अपनी
धड़कनों का शोर
सुनता रहे।

केवल शांति
और
केवल शांति
चिर शांति की ओर
तो ले जा सकती है
किन्तु जीवन की
चपलता और चंचलता
की ओर कदापि नहीं।

कई बार
शांति की चाह में
इंसान खुद को ही
खो देता है।
खुद को खो देना यानी
'जिन्दा लाश'
जो देखती सब है
पर कहती कुछ भी नहीं।

शांति के साथ
जरुरी है सक्रियता
भगवद्गीता के अनुसार
निष्क्रियता साक्षात् मृत्यु है।

विस्तृत वितान में
अपार शांति है, किन्तु
विहगों को आज भी
धरती का शोर पसंद है।
तभी उनकी
उड़ानों की मंजिल
चाहे जो भी हो,
समाप्त आखिर
धरा पर आकर होती हैं।

शांति अँधेरी रात है,
मुर्गों की बांग,
मंदिरों की घंटियाँ,
मस्जिदों में अजान,
पंछियों का कलरव
सुबह को लाती हैं।
हर अच्छे का प्रारम्भ
केवल शांति से नहीं होता।

शांति साधन है या साध्य।
यह मानसिक द्वंद्व
आज भी असाध्य है।

जो अधिकतर बार अच्छा हो
जरुरी नहीं कि
वो हर बार ही अच्छा हो
शांति भी उन्हीं में से एक है।