समय की शाण पर
चढ़ा हुआ
रक्त की चिथड़ाती बूँदें
असंख्य
झरती हुई दिपती हैं
खर्र-खर्र ध्वनि मेंसमाहित
शब्द बीजों के लिए
रीढ़ से रेखाएँ तीर-सी
खिंचती हैं
अँकुराया हौसला
बढ़ता है
हवाओं में लहर कर
साथ चलता है
इस पूरी गति में
अपने को पछीटते आता हूँ
बीतता आता हूँ
इस ज्योतित भाषा के
काग़ज़ की तलाश में
ख़ुद को ही पूरा पा जाने को
समय से झगड़ता हूँ
शाण पर चढ़ा हुआ।