इतिहासक पन्ना पर देखू
ढबकि गेल अछि मोसि,
तन्द्रा तोड़क हेतु लोककेँ
चाही अखरा नोसि।
पुरिबा पछबा हूकि रहल छै’
उड़ल फिरै’ अछि पात।
तदपि कल्पना क्षितिजकोरमे
हँसइछ स्वर्णिम प्रात।
बुझले अछि पहिनेमँ दम्भी-
मानव मनक दुराशा,
कहि गेलाह कविवर कबीर
जग पानिक तितल बतासा।
द्वेषक धार, अहंकेर नौका,
लोभे अछि करुआरि,
स्वार्थक घूर्णिचक्र पर घुमइत-
केँ के सकत उबारि?
गगन पारमे पसरि रहल अछि
विकट तिमिर केर जाल,
विज्ञानक बीहरिमे बैसल
विध्वंसक ई व्याल।
धर्म-दीपमे श्रद्धा-सिंचित
रहल न सत्यक टेमी,
मनुज-लोकमे बाँचि सकत नहि
आब मनुजता प्रेमी।
विश्वासक बस्ता फोलब तँ
भेटत कपट प्रबन्ध,
आत्मतत्त्व दर्शनक दृष्टिअे
मनुज भेल अछि अन्ध।
रखलनि विष्णु सुदर्शन,
ब्रह्मा लेलनि नुका कमण्डल,
रुद्रक डमरू-नाद-निनादित
रहत सकल ग्रहमण्डल।
बीतल सरस-वसन्त उषम-
ग्रीषम अछि सम्मुख ठाढ़।
देखि रहल छी युगक पीठपर
महाभयंकर दाढ़।
शशधर बनि विषधर बिचरै’ अछि
चाही रहक सचेत,
मारल जायत शान्ति अन्यथा
मङनी अपटी खेत।