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शान्ति-प्रस्ताव / चंद्रभूषण

पाँच तो क्या एक भी गाँव मुझे नहीं चाहिए ।
सुई के नोक बराबर भी ज़मीन
तुम मुझे नहीं देना चाहते
मत दो, मुझे उसका क्या करना है ।

मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना
न जर, न ज़मीन, न जोरू के लिए
न बतौर कवि
एक जरा सी हैसियत के लिए ।

मेरा महाभारत तो खुद मुझसे है
जिसे मैं जितना भी बस चलता है,
लड़ता रहता हूँ ।

किसी कुत्ते-कबूतर गोजर-गिरगिट की तरह
मेरे भी हाथ एक ज़िन्दगी आई है
इसको तुमसे, इससे या उससे नापकर
मुझे क्या मिल जाएगा ।

इस दुनिया में हर कोई अपने ही जैसा
क्यों नहीं रह सकता
इस पर इतना टंटा क्यों है
बस, इतनी सी बात के लिए
लड़ता रहता हूँ ।

मेरी कविता की उड़ान भी
इससे ज़्यादा नहीं है
मेरी फ़िक्र में क्यों घुलते हो
मुझे तुमसे कोई युद्ध नहीं लड़ना ।