शान्ति! महादेवी!
एक हाथॅ में ज्ञानॅ-विज्ञानॅ के चकाचौंध,
साहित्य के ब्रह्मानन्द, संगीतॅ के नाद ब्रह्म,
दर्शनॅ के जोत अमन्द!
दोसरा में कुबेरॅ के भंडार, हीरा-मोती अपार,
इन्द्रॅ के ऐश्वर्य, नन्दन के बहार!
स्वेत-बसना, गज-गामिनी, नस-नस में दामिनी;
गुलाबॅ के पंखुड़ी सें भी सुकुमार;
झुकी-झुकी जाय केश-भार!
संतोष-साम्राज्य दसो-दीश;
देखथैं श्रद्धावनत शीश,
ठोरॅ पर पागल हँसी, भागै सॅ कोस रीस-खीस!
पानी सन निश्छल तरल,
सिसकीं हवा केॅ करी जाय चंचल;
छोटखौ ठिलौरी मचाय जाय हलचल,
प्राण उड़ी जाय सुनी हो-हल्ला कोलाहल।
सबकुछ, लेकिन-
शान्ति बिना शक्ति छै असहाय,
जेना, बिन रखबारॅ के जंगल में गाय,
बिना जोगलॅ खेत-बकरी चरी जाय,
बिन झाड़लॅ पुस्तक-दीमक लगी जाय,
जेना गरीबॅ के विधवा-सबके भौजाय,
जेकरा नै माय-बाप, जेकरा नै भाय।