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शाम के तंग दर्रों के क़दमों में
बहता है वह
जैतून-वर्णी सोता
और पहुँचता है
उस भंगुर भुलक्कड़ आग तक ।
धुन्ध में सुनता हूँ अब मैं
झींगुरों और मेढ़कों को
जहाँ हौले-हौले
घासें काँपती हैं ।
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शाम के तंग दर्रों के क़दमों में
बहता है वह
जैतून-वर्णी सोता
और पहुँचता है
उस भंगुर भुलक्कड़ आग तक ।
धुन्ध में सुनता हूँ अब मैं
झींगुरों और मेढ़कों को
जहाँ हौले-हौले
घासें काँपती हैं ।