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शाम / उंगारेत्ती

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शाम के तंग दर्रों के क़दमों में

बहता है वह

जैतून-वर्णी सोता


और पहुँचता है

उस भंगुर भुलक्कड़ आग तक ।


धुन्ध में सुनता हूँ अब मैं

झींगुरों और मेढ़कों को

जहाँ हौले-हौले

घासें काँपती हैं ।