कोई बताये मुझे
इश्क़ की कौन सी मंज़िल है ये
हर एक सिम्त कोई उदासी फैली है
रात की चादर ज़रा सी मैली है
उदास उंगलियाँ, उदास हैं मेरे लब भी
सोच की सतह पर तुम उगे जब भी
पसर गया है एक 'व्यास' यूँ कतरा कतरा
बिखर रहा है पानी तेरे गेसू की तरह
महक रही हो तुम किसी खुश्बू की तरह
सारी वादी में ज़िक्र है तेरा
ये फूल, ये पत्ती, ये दरख़्त सभी
कई सदियों से मुंतज़िर हैं
अपनी आँख में तेरी ही तमन्ना ले कर
अपने कन्धे पर खुद लाश ही अपना लेकर
शाम की चाय आज पी मैनें
यहाँ की चाय तो मीठी है मगर
तेरे बगैर ये शाम बहुत फीकी है