शाम वाली डाक से ख़त
आज आया प्यार का।
यह सुबह, वह शाम
कटते कट गए, बीसों बरस,
आज अपने आप पर
आया मुझे बेहद तरस;
क्या कभी होगा हरा फिर
ठूँठ यह कचनार का?
हो गए जो धूल
उनको फ्रेम करवाया नहीं,
भूलकर भी भूल से
वह नाम दुहराया नहीं;
फर्क़ भी जाता रहा
शनिवार या रविवार का।
है बहुत सम्भव इसे पूँजूँ
मगर बाँचूँ नहीं,
फिर कसौटी पर स्वतः को
मैं कसूँ, जाँचू नहीं;
एक कंकड़, जल हिले थिर
भय भरे है ज्वार का।