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शिखण्डिनी का प्रतिशोध-5 / राजेश्वर वशिष्ठ

तिरस्कृत स्त्री की आँखों में
नहीं होते आँसू
भस्म हो चुके होते हैं उसके सारे स्वप्न
हृदय में खौलता है गरम लावा
और वह फट जाना चाहती है
किसी ज्वालमुखी की तरह !

किसी अदृश्य चौराहे पर खड़ी है अम्बा
जहाँ से कोई रास्ता नहीं जाता
भविष्य और जीवन की ओर;
पर वह नहीं कर सकती मृत्यु का वरण
क्योंकि वह समय के हाथों
छली गई है,
हारी नहीं है !

वह जानती है, शाल्व की तरह ही
अब उसे स्वीकार नहीं करेंगे
उसके बन्धु-बान्धव,
और राजा विचित्रवीर्य भी
सत्य है, ओस की एक बून्द
फूल से टपकते ही
बन जाती है कीचड़ का हिस्सा !

ढलती साँझ में, अम्बा शरण लेती है
तपस्वियों के आश्रम में
जिनका सुझाव है --
स्त्री के दो ही आश्रय होते हैं
पिता या पति !

अम्बा नहीं लौटना चाहती काशी
और अब उसे प्रतीत होता है
पति तो उसके भाग्य में,
है ही नहीं,
पर वह क्षमा नहीं कर सकती
अपने अपहर्ता भीष्म को !

आश्रम में अम्बा मिलती है
अपने नाना ऋषि होत्रवाहन से
जो उसे मिलवाते हैं
जमद्ग्निनंदन परशुराम से,
सम्भव है भीष्म के गुरु परशुराम
कर सकें भीष्म को विवश
किसी सम्मानजनक व्यवस्था के लिए !

अम्बा की व्यथा से
द्रवित होते हैं परशुराम
करते हैं घोषणा –-
मैं भीष्म को आज्ञा दूँगा
कि वह तुम्हें स्वीकारे कुरुवंश में
अन्यथा उसे भस्म कर दूँगा मन्त्रियों सहित !

परशुराम, अम्बा और अनेक ब्रह्मज्ञानी ऋषि
भीष्म से मिलने सरस्वती के किनारे
पहुँचे हैं कुरुक्षेत्र !

भीष्म आदर के साथ करते हैं
गुरुदेव का स्वागत और चरण-वन्दना
आशीष देते हैं परशुराम
और बताते हैं अपने आगमन का निमित्त !

भीष्म, ब्रह्मचारी होकर भी तुमने स्पर्श किया है
काशी नरेश की पुत्री अम्बा को;
अतः नष्ट हो गया इसका स्त्री-धर्म
इसी आधार पर शाल्व ने किया है इसका तिरस्कार
अब अग्नि की साक्षी में
तुम करो इसे ग्रहण
या करे तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य !

गुरुदेव, मैं तो आजन्म ब्रह्मचारी ही रहूँगा
आप जानते हैं मैंने लिया है यह व्रत
और अब विवाह तो विचित्रवीर्य से भी
सम्भव नहीं अम्बा का
क्योंकि इसका रहा है राजा शाल्व से प्रेम,
हस्तिनापुर का राजमहल नहीं स्वीकार कर सकता
ऐसे चरित्र की किसी स्त्री को अपने वंश में,
क्षमा करें गुरुदेव !

एक बार फिर द्ग्ध हुई
काशी कुमारी अम्बा !
और क्रुद्ध होकर परशुराम ने भीष्म को ललकारा
कुरुक्षेत्र के मैदान में
द्वंद्व-युद्ध के लिए !

कई दिन चलता रहा
एक स्त्री के सम्मान के निमित्त
भीष्म और परशुराम का यह युद्ध
बिना हार-जीत के !

वसु-देवताओं ने विश्वास दिलाया भीष्म को
कि परशुराम से पराजित नहीं होगे तुम
पर पराजित नहीं होंगे परशुराम भी,
तो क्या सृष्टि के अन्त तक चलेगा यह युद्ध ?

यह लो प्रस्वाप नाम का अस्त्र
और इसका सन्धान करो परशुराम पर
वह मूर्छित हो जाएँगे लम्बी अवधि के लिए
और तुम हो जाओगे विजयी !

युद्ध के मैदान में भीष्म परशुराम पर
साधना ही चाहते थे प्रस्वाप
कि नारद जी प्रकट हो गए --
अपने गुरु पर इसका प्रयोग मत करो भीष्म
उनका सम्मान करो !

भीष्म ने रोक लिया प्रस्वाप
और प्रसन्नता से परशुराम ने
उन्हें लगा लिया गले से !

स्त्री की मर्यादा लौटाने के लिए लड़ा गया युद्ध
समाप्त हुआ इस सन्धि के साथ
कि लड़ना तो क्षत्रिय का ही धर्म है
ब्राह्मण का धर्म तो स्वाध्याय और व्रतचर्या ही है
स्त्रियों का क्या वे तो भूमि की तरह हैं
जिन्हें हल की नोंक से
रौंदा ही जाता है अच्छी फ़सल के लिए !

एक बार फिर हतप्रभ थी अम्बा
उसके हृदय का लावा
धधकते हुए खौल रहा था
भीष्म को समूल भस्म करने के लिए !

इतिहास साक्षी है
स्त्रियाँ छली गई हैं,
वे हारी कभी नहीं !