सृष्टि को चलाती हैं स्त्रियाँ
पुरुष के अवदान से
जैसे उपजते हैं अन्न, फलदार पेड़
भूमि के गर्भ से
पर किसान सदा चिन्तित रहता है
अच्छे बीज के लिए
वह अक्सर भूल जाता है उस धरती को
जिस पर लहलहाती है फ़सल
ऐसा ही होता है हमारे समाज में
स्त्रियों के साथ !
वे बढ़ाती हैं हमारी वंश-बेल
पर उनके जन्म की
कोई नहीं करता कामना
वे आती हैं अयाचित और विदा लेती हैं
किसी भिक्षु की तरह;
भूमि का अंश
अन्ततः मिल जाता है भूमि में ही,
मिट्टी होकर !
सन्तान पाने के लिए ही
तपस्या करते हैं पांचाल देश के राजा द्रुपद
और माँगते हैं शिव से एक पुत्र,
प्रसन्न होते हैं शिव और कहते हैं --
द्रुपद देता हूँ तुम्हें वरदान सन्तान प्राप्ति का
पर होगी यह कन्या !
धर्म कहता है
दूसरे का वंश चलाती हैं कन्याएँ
कैसे सन्तुष्ट होते राजा द्रुपद
पुनः प्रार्थना और अर्चना की जाती है पुत्र के लिए ।
मैं बदल नहीं सकता अपना वरदान
पर देता हूँ यह वरदान भी
कि दैव इच्छा से
एक दिन पुरुष बन जाएगी तेरी बेटी !
व्यथित राजा ने कन्या के जन्म को
इस तरह प्रचारित किया लोक में
मानो पुत्र ही जन्मा हो रानी के गर्भ से !
सुन्दर और सुशील थी
राजा द्रुपद की ज्येष्ठ सन्तान
उसके केश थे घने और बहुत लम्बे
जिन्हें वह लपेटे रहती थी सिर के ऊपर
इस शिखा के कारण ही
वह कहलाई शिखण्डिनी !
पर राजा के छल ने
लोक में उसका पुरुषवाची नामकरण किया
शिखण्डी – द्रुपद का कन्या-सा कोमल, पुत्र
जिसके पुरुष बन जाने की
सदैव प्रतीक्षा थी राजा को
झूठा तो नहीं होगा शिव का वरदान !
शिखण्डी करता रहा
अनेक विद्याओं का अध्ययन
आचार्य द्रोण तथा
अन्य गुरुओं के मार्गदर्शन में
अग्नि-कुण्ड से मिले
अपने भाई धृष्टद्युम्न
और बहन द्रौपदी के साथ !
कालान्तर में शिखण्डी का विवाह हुआ
दशार्णराज हिरण्यवर्मा की
सुन्दरी कन्या अनामिका से
जिसने सुहागरात में उत्पात मचा
ले ली पितृगृह की राह
और सूचित किया अपने पिता को
कि शिखण्डी स्त्री है
और यह विवाह हुआ है धोखे से !
दशार्णराज हिरण्यवर्मा ने क्रुद्ध होकर
सन्देश भेजा राजा द्रुपद को
कि वह सप्ताह भर में करे
इस कृत्य का निस्तारण
अन्यथा पूरे दल-बल के साथ
नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जाएगा पांचाल देश !
यह अभूतपूर्व लज्जा का समय था
शिखण्डिनी के लिए
राजा द्रुपद के लिए
और भगवान शिव के लिए भी !
शिखण्डिनी शिव से रुष्ट होकर
प्राण त्यागने के लिए
निकल पड़ी वन क्षेत्र में
और लीन हो गई कठिन तपस्या में !
शिखण्डिनी पर अन्ततः दया आई
स्थूणाकर्ण नामक यक्ष को
और उसने कुछ दिन के लिए
शिखण्डिनी को दे दिया अपना पुरुषत्व
वापस लौटा जाने की शर्त पर,
और इस बार शिखण्डिनी वन से लौटी
राजकुमार शिखण्डी बन कर !
दशार्णराज हिरण्यवर्मा की नगरवधुओं ने
शिखण्डी को दिया पुरुष होने का प्रमाण-पत्र
और इस तरह एक यक्ष की कृपा से
अपमानित होने से बच गया पांचाल देश !
वन में स्थूणाकर्ण यक्ष भोग रहा था स्त्रीत्व
और इसी बीच वहाँ उसे खोजते हुए आए कुबेर
जो उसकी स्वर्ग में
लम्बी अनुपस्थिति से बहुत नाराज़ थे,
जब उन्होंने उसे स्त्री रूप में देखा
तो कुपित हो कर शाप दिया --
अधम बहुरूपिए तू अब
जीवन भर स्त्री ही रह !
गिड़गिड़ाता रहा स्थूणाकर्ण
तब जाकर पिंघले कुबेर
उन्होंने कहा तुम फिर हो जाओगे पुरुष
शिखण्डी की मृत्यु के बाद,
यही है शिव की और मेरी इच्छा !
कुछ दिनों बाद उधार का पुरुषत्व
लौटाने के लिए स्थूणाकर्ण के द्वार पर
उपस्थित थे शिखण्डी
पर कुबेर के शाप के कारण
उसे ग्रहण नहीं कर सकता था यक्ष !
द्रुपद प्रसन्न थे
शिखण्डी के पुरुष बन जाने पर
पूरा पांचाल प्रदेश कर रहा था
शिव की जय जयकार !
एक बार फिर गम्भीरता से
शिखण्डी ने दोणाचार्य से सीखी
अदम्य धनुर्विद्या उसके चारों अंगों
ग्रहण, धारण, प्रयोग और प्रतिकार के साथ
अब वह धृष्टद्युम्न से पीछे नहीं थे
पर उनके शरीर का लोच
विज्ञजनों को किसी कमनीय स्त्री का स्मरण
अवश्य कराता था !
शिखण्डी के पुरुष शरीर
और स्त्री आत्मा में
अब भी धधक रही थी आग
और उसे प्रतीक्षा थी
उस भीष्म की जिसे सामान्यजन
धर्मावतार कहते थे !
उसे इस अवतार की
मुक्ति के लिए ही
निमित्त बना दिया गया था
अम्बा, शिखण्डिनी
और शिखण्डी जैसे नामों के साथ;
उसे तो मालूम भी नहीं था
कि वह त्रिदेवों की चौपड़ की
एक कमज़ोर गोटी भर है !