बड़े यत्न से
कंटीली झाड़ियों के बीच
अनायास ही उग आये से
उस इकलौते सुकोमल पौधे से
तोड़ लाती हूँ वह
'मंदार पुष्प'
अर्पित करती हूँ तुम्हें
"आशुरोष" जान
जल्दी कुपित हो जाते हो ना
प्रिय है ना तुम्हें मंदार
पर क्या करूँ
भीतर ही भीतर
वासना के पौधे पर
कसमसाती उस अपवित्र 'केतकी' की कली का
वह भी तो पाना चाहती है
तुम्हारा सानिध्य
त्यागना चाहती
वर्जित पुष्प के
नामकरण को
सुनोनाथ !
क्षमा कर दो उसे
अंगीकार करो
सार्थक हो चले
तुम्हारा वह
रूप
"आशुतोष"
है जो