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शिशु मन / कर्णसिंह चौहान


पर्त-दर-पर्त
पहाड़ों की
इस सूनी
अंधियारी घाटी में
खेल रहे दो शिशु मन
सब कुछ से बेखबर ।


दिशाओं में फैली
यह खुशबू
बता रही है
पहाड़ी पर चीड़ों के जंगल है
पास ही कहीं
छोटी सी नदी
किसी गुफा से निकल
उसी में समा रही है ।

उसी में समा रही है
यह सड़क ।
इस बियाबान में
दूर तक फैल गया है
मीरा के गीत का दर्द ।

देखो न
सीने की धड़कन रुक गई है
थम गई नदी
वह बयार
इसे मत गाओ
आसमान से उतरकर
यहां आओ
जोगन
इस पोशाक के बारे में
कुछ बताओ
इसमें छुप गए हैं
तमाम तारे
केवल झांक रहा पूरा चाँद ।
बहुत तेज है रोशनी
चेहरे पर
आ जाता है
भीतर का रहस्य
इसे भी ढक दो ।

आओ
हम यह सागर पार कर
यमुना के तट पर चलें
चुपचाप सुनें
बांसुरी की धुन
देखें महारास ।

तेज भागती यह कार
अनंत की ओर जा रही
अंधेरे को चीरती
पीछे छूट रहे
नगर और गाँव
इस आकाश गंगा
के नीचे
कहीं धरती होगी
इस अंधेरे
के पार
कहीं सूरज उगेगा
इन उदास किस्सों के
अंत में
हंसी होगी
शरीरों के पास होगा
निराकार
साझा ईश्वर ।

उदास मत होवो
इतना अकेला नही है
यह शून्य

यहां लीला का पूरा संसार है ।