जब एक देश —
कुल मिलाकर — ठीक-ठाक लोगों का
बन जाता है —
धीरे-धीरे — फ़ासीवादी,
तो ये ठीक-ठाक लोग
इस परिवर्तन को
पकड़ नहीं पाते एकबारगी ।
वैसे ही जैसे कोई ऐसा आदमी
जिसे हम अच्छी तरह से जानते हैं
चला जाता है, हमारे अगल-बगल से,
उम्र बढ़ने की किसी अदृश्य प्रक्रिया से
गुज़रते हुए ।
अलक्षित रूप से, नई झुर्रियाँ
फाँक-दर-फाँक काटती रहती हैं त्वचा को,
पैदा करती हुई ख़ौफ़ गहरा ।
अच्छे लोग सिर झुकाते हैं,
जब वे होते हैं आमने-सामने एक दूसरे के,
वे प्रयास करते हैं विनत रखने का
अधिक से अधिक अपनी आँखों को,
इतना कि उन्हें उठाना
अन्ततः एक अमानवीय चेष्टा बन जाती है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र