क्या गीत लिखूँ, मेरी ही जब रचना अब तलक अधूरी है!
मेरे निर्माता ने मुझको हीरक,
न बनाया पत्थर है!
लेकिन जिस बस्ती में भेजा,
सब शीशे के सौदागर हैं!
शीर्षक क्या दूँ, जब मेरी यह मर्माहत कथा न पूरी है!
मिट्टी का लोंदा नाच-नाच
घट बना, बड़ा या छोटा हो!
उसमें तो जल भरना ही है,
चाहे जिसका जो कोटा हो!
पनघट तक जा जो फूट गया, उसकी कैसी मजबूरी है!
शब्दों के ताने-बाने से
यों भाव रूप पा जाते हैं,
जैसे मृणाल पर झुके कमल
रक्ताभ धूप पा जाते हैं।
खिलने पर भी लेकिन रवि से शतदल की कितनी दूरी है!
जाने इस दुनिया में कितने
मुझ-जैसे जन मिल पाते हैं,
जो न्याय स्वयं तो देते हैं,
अन्याय मौन सह जाते हैं।
हर शाम लुटाकर भी सब कुछ पश्चिमी विभा सिन्दूरी है!
(21.3.1983)