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शुरुआत / विष्णु खरे

अशोकनगर स्टेशन पर रात दो बजे
उन सैकड़ों की भीड़ देख कर दिल डूब गया था
अपनी स्लीपर की रिजर्व-सीट भले ही न छिने
तो भी डिब्बे में घुस कर वे चैन से सोने नहीं देंगे

लेकिन वे बिना किसी शोर-शराबे गाड़ी में दाखिल हुए
जिसको जहाँ बैठने या खड़े रहने की वाजिब जगह मिली
वह उस पर चुप रहा

ध्यान से देखा मैंने उन्हें
इस तरह के इतने मौन यात्री मैंने कभी देखे न थे
अधिकांश खद्दर के सादा-कपड़े पहने हुए
पैरों में सस्ते जूते भी कम किफ़ायती चप्पलें ज़्यादा
हरेक के कुर्ते-कमीज़ की जेब पर उसकी पहचान पर्ची लगी हुई

वे बाहर के अंधेरे वीरान में उस तरह चुप लग रहे थे
जैसे सदियों से वंचित शोषित अवमानित लोग
अपने जीवन अपनी आत्मा अपने अतीत में देखते हैं
और प्रतीक्षा करते हैं
लेकिन उनके शरीर की भाषा में एक संयम था
उनके चेहरों पर एक अपूर्व संकल्प कभी-कभी कौंध जाता था

बहुजन समाज के वे कार्यकर्ता
जिनमें कम्यूनिस्टों को छोड़ दीगर हर पार्टी के गिरोहों की
उठाईगीरी और उचक्केपन का अविश्वसनीय अभाव था
अपनी भोपाल की रैली के लिए कब बेआवाज़ उतर गए
मुझे अपनी नींद में मालूम न पड़ा

लेकिन मुझे ख़ूब याद है
मैंने उन्हें उत्तर प्रदेश के शहरों और कस्बों में
उनके दफ़्तरों में देखा है
जहाँ उनका सिर्फ़ एक नुमाइंदा पत्रकारों से बात करता था
आत्मसम्मान और गरिमा भरी मितभाषी तार्किकता और दृढ़ साफगोई से
और उसके आसपास बाकी सारे ऐसे ही कार्यकर्त्ता
उसे तल्लीन मौन वर्ग-गर्व से देखते थे-
उन दृश्यों से मुझे हमेशा लेनिन को घेरे हुए
दमकते चेहरों वाले बोल्शेविक काडरों की तस्वीरें याद आती थीं-
मैंने उन्हें आम्बेडकर साहित्य और महात्मा फुले की जीवनी ख़रीदते देखा है
उन्होंने कभी-कभी मुझसे बातें भी की हैं
गुंडागीरी अश्लीलता और शोहदेपन का उनमें नाम नहीं

तुम जो उनके कथित नेताओं के कदाचार से इतने ख़ुश हो
खुश हो कि तुम्हारे जितना पतित होने में उन्हें कितना कम वक़्त लगा
और सोचते हो कि तुम्हारी आँखों में ये नीच लोग
इसी तक़दीर के काबिल हैं
अव्वल तो तुम यह भूलना चाहते हो
कि द्विजों के पाँच हज़ार वर्षों के पाशविक-तंत्र में
यही सम्भव है और कुछ दिन और रहेगा
कि रिश्वतखोर और धूर्त सवर्ण साथ दें
एक पथभ्रष्ट उनके लिए अस्पृश्य नेतृत्व का
और दूसरे तुमने वे चेहरे देखे नहीं है
जो इस किमाश के वंचित नेताओं बुद्धिजीवियों के नहीं हैं
बल्कि अभी तक सताए जा रहे निम्नतम वर्गों के हैं
लेकिन जिनकी आस्था और एकजुटता मैंने देखी है
जो न बिके हैं और न गिरे हैं न गिरेंगे
वे ही एक दिन पहचानेंगे
मायावी राजनीति की काशी करवटों के असली चेहरे
शनाख़्त करेंगे हर जगह छिपे हुए
मनु कुबेर और लक्ष्मी के दास-दासियों की अपने बीच भी
तुम्हारी द्विज राजनीति पिछले सौ वर्षों में सड़ चुकी है
और तुम उस मवाद को इनमें भी फैलती समझ कर सुख पाते हो,
लेकिन इनकी आँखों में और इनके चेहरों पर जो मैंने देखा है
उससे मैं जानता हूँ
कि तुम्हारे पाँच हज़ार वर्षों की करोड़ों हत्याओं के बावजूद
ये मिटे नहीं हैं और अब भी तुम्हारे लिए पर्याप्त हैं
तुम्हारे साथ अपने कठिन युद्ध का यह मात्रा प्रारम्भ है उनका
फिर तुम देखोगे कि अपने दूसरे समानधर्मा भी पहचान लेंगे ये
जो पहले से ही सक्रिय हैं
और इसी दुहरी समझ से अंततः जन्म लेंगे
और किसी द्विज कुल में कभी नहीं
बल्कि जैसे कई जो बुद्ध के बाद विष्णु के नये अवतार नहीं होंगे
मात्र मुक्तिदाताओं में होंगे हमारे
अपने समूचे समाज के और तुम्हारे सारे कलुष के