भूला जैसा हो गया
मंदिर की घंटी की आवाज़ में
पीठ पर चढ़कर भी
घुस नहीं सके हैं !
आवाज़ कहाँ नहीं घुसती है
कहाँ इकट्ठा हो गए होंगे
हमें छोड़कर गए शब्द
अपने में ही अपनो को परदेशी बनाकर
घर की देहरी तक भूल गए !
एक बार कुरुक्षेत्र की उस रणभूमि में
हमारे बीच परिचय कराया गया था
हमने हाथ मिलाया था
हमने अपना चेहरा स्पष्ट देखा था
उस महान परिचय के दर्पण में !
उस पार खड़े सभी को
पहचान कर भी
स्वयं को न पहचान पाने के वक़्त
हमें परिचय कराने आया
वह व्यक्ति
कभी भी नहीं लौटा !
शायद शवयात्रा से लौटे हुए
इस विशाल शहर के जंक्शन में / अस्त-व्यस्तता
और मनुष्यों की भीड़ में
कहाँ खो गया वह व्यक्ति
कहाँ खो गया
जो मिला नहीं अब भी
धर्म-पुस्तक के अक्षर छूकर चलने पर भी
इस घनघोर अन्धकार में !
फैलता जा रहा है मैदान जहां हम खड़े हैं
नहीं समायेगी इतने बड़े दर्पण में भी
अणु-परमाणु से चलकर
न्यूट्रोन-प्रोटोन तक पहुंची
यह चरम सभ्यता की जिन्दगी
कदम आगे बढ़ रहा
हम अब भी घूम रहे हैं
उसी हाथीं के चारो ओर
जहां फूट गया वह दर्पण
स्वयं को देख न पाकर
हम अब भी अंधे हैं !
कहाँ छोड़ आये
विश्राम लेते समय
इस लंबी यात्रा की समरभूमि में
स्मृति के पन्ने
कि हम रोगी हैं
इस विराट अस्पताल में
छूकर स्वयं को पहचानने की कोशिश करती बेला
कहाँ-कहाँ से आकर मानो जुड़ी
भूली हुई बातें !
लेकिन हम तो जोगी हुए
आधी-आधी रात तक जागा बैठा दुकानदार
यह जिग्यासा
यह दृष्टि
व्यस्तता कर रही है प्रतीक्षा
इतवार का दिन !
मूल नेपाली से अनुवाद: बिर्ख खड़का डुबर्सेली