शून्य से आये यहाँ
और शून्य में जाना विलीन
पड़ाव को मंज़िल समझ
हम जाने किस-किस में हैं लीन...
चाहतें कितनी ही रख लें
होनी है उसके अधीन
किन्तु फल होते हमारे
अपने कर्म के अधीन...
जैसे पानी के बिना
एक क्षण भी रह न पाये मीन
तेरे बिन रह पाऊँ ना
जैसे तू जल और मैं मीन...
जैसे लोभी धन में और
व्यसनी व्यसन में होता लीन
वैसे ही मैं भी कभी
हो जाऊँ तुझ में ही तो लीन...
कोई तो गुण है नहीं
मैं हूँ साधन बल से हीन
फ़िर भी तुझपे है भरोसा
तू दयालू और मैं दीन...
तुझको भले ना देख पाऊँ
क्यों कि है मेरी दृष्टि क्षीन
तू है हर पल साथ मेरे
है मुझे पक्का यकीन...