धरनी शूर सराहिये, लरै जो धन के हेत।
टारे टरै न काहुके, खेत माँह जिय देत॥1॥
धरनी शूर सराहिये, तजै अन्त की आस।
आठ पहर अभि-अन्तरे, धरै एक विश्वास॥2॥
शुखा ताहि सराहिये, धरनी बिनु शिर घाव।
लरै शब्द शम्सेर से, पीछे परै न पाव॥3॥
धरनी चढु मैदान मँ, तबल निशंक बजाय।
आगे होइ शिर दीजिये, सन्मुख सहिये घाय॥4॥
साईं कारण मरि मिटो, धरनी मन खुशिहाल।
भाजे बहुरि न वाँचिहो, खेद मारिहै काल॥5॥
सुझन्ता घर आपनो, बूझन्ता विपरीत।
जूझन्ता कोइ सूरमा, धरनी प्रेम-प्रतीत॥6॥
धरनी ते नर सूरमा, मिले राम-दल माँहि।
वेद लोक कुल कर्मकी, शंका मानैं नाँहि॥7॥
धरनी ते नर सूरमा, अनुभव उपजै आन।
जाति-जंजीरा तोरिके, रोपि रहैं मैदान॥8॥
धरनी मन शुरवा करोद्व पहिरु भक्तिकी माल।
फींक पकरि गुरु-आनकी, मारि दूर करु काल॥9॥