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शेष / उमा अर्पिता

हवा में उड़ते हुए
प्रश्नों के गुब्बारे
एक विशेष ऊँचाई तक
पहुँचकर
फट जाते हैं
एक हल्की-तीखी गंध
वातावरण में घुलकर
रह जाती है...
एक ऐसी गंध, जो
यथार्थ के धरातल तक
पहुँचने से पहले ही
अपनी पहचान खो चुकी होती है,
और--
शेष रह जाता है
प्रश्नों की गंध से अछूता
टुकड़े-टुकड़े हुआ सच,
जिसकी
अपनी कोई
कीमत नहीं हुआ करती।