शबरियो के आंग भेलै नील,
ठण्ड मेॅ ठिठुरी केॅ जेन्होॅ झील।
प्राण सेॅ खाली रहेॅ जों देह,
आँख के कोरी में जमलोॅ मेह।
कण्ठ सेॅ फूटै नै कोनो बात,
जों कुसुम पर शिशिर केरॉे घ्ज्ञात।
विण्डवो के छै सरंग पर नाँच,
हरहरलेॅ टूटी पड़लै गाछ।
कोनो हलचल नै कहूँ, सब शान्त,
नै लगै छै साध्वी शबरी-प्रान्त।
छै हवा के साँसो तक भी बन्द,
लय नै केकरो में कहूँ, कुछ छन्द।
एक सन्नाटा उठैलै बाँह,
मृत्यु केरोॅ बहुत शीतल छाँह।
वेदी पर शबरी रखी केॅ शीश,
एक दाफी सुमरी अपनोॅ ईश;
मुनि मतंगो केॅ करी केॅ ध्यान,
रोकी लेलकै प्राण केरोॅ गान।
डार सेॅ उड़ले जेन्है केॅ काग,
देह में तेन्है सुलगलै आग।
नै धुआँ, नै गन्ध खाली तेज,
अग्नि कुण्डोॅ रोॅ सजैलोॅ सेज।
साध्वी शबरी रोॅ बस अवशेष,
देखथैं बस देखथैं सब शेष।
पर अभी भी प्रश्न गूंजै एक,
शबरी केरोॅ प्राण मेॅ जों खेंक।
”राम बोलो, की सिया के दोष?
नारिये पर बस सभै के रोष?
”जों यहा रं रहथौं यै ठां राज,
घूरतै चिरई केॅ हेन्हैं बाज।
”तेॅ कहौं की शान्ति होतै राम,
शान्ति लेॅ तेॅ नीतियो निष्काम!
”जै ठियां नारी के नै सम्मान
वै ठियां केना बसै भगवान!
”नारी के जे हेय समझै
नीति ऊ की शुद्ध?
जे बूझै नर-नारी सम छै
राम, ऊ नर बुद्ध!
”नारी के आँसू गिरेॅ तेॅ
सम्मुखे कलिकाल,
कोय लगौ कत्ते नी ऊच्चोॅ
झुकले लगतै भाल।
”कल्प-युग कोय्यो रहौ नी
नारी जों भयभीत,
तेॅ वहाँ केना लिखैतै
देवता रोॅ गीत।
”देह शबरी के रहॅ नै
प्रश्न रहतै शेष,
खुल्ले रहतै तब तलक ही
ई व्यथा के केश।“