उमड़ा सारा नगर नर्तकी के महल के आगे
ज्यों-त्यों जोड़ रहे हैं सब टूटे अतीत के धागे
सारी रात महल को घेरे मथुरा जगी हुई है
सब में वासव की स्मृति की पीड़ा पगी हुई है
महलों से अब भी मादक संगीत-गूँज आती है
स्वर्ण-नूपूरो की मधुरिम ध्वनि मदिरा बरसाती है
लगता है-वासव की छवि-श्री अब चमकी, अब दमकी
मधुर-मदिर मुस्कान, चाँदनी छिटकेगी पूनम की
क्या होगा, अब क्या होगा, रे कौन कुहू बोलेगी ?
कौन असख्य श्रुति-पटों में मादक मिश्री घोलेगी ?
नित्य दिवाली मथुरा में अब कौन मनायेगी रे !
कौन ? कौन ? अब कौन ? स्वर्ण घूँघरू झनकायेगी रे !
कैसी कुघड़ी थी रे ! जब वह मूर्तिकार आया था
क्या वह यह दुष्चक्र नियति का साथ-साथ लाया था
हुई मंद हलचल, प्रहरी-दल मार्ग बनाताा आया
नृपति पधार रहे वासव-गृह, सन्नाटा-सा छाया
सभी समुत्सुक हुए, भीड़ संयत तत्काल हुई है
नृप की आगमनी, अचरज की बात,अकाल हुई है
हुए प्रविष्ट महल में नृप, पीछे अनुशासित जन हैं
वासव की स्मृति में भीगे-भीगे सब के मन हैं
कला-कक्ष मं खड़ी हुई वासव मुसकुरा रही है
मूर्ति-चरण से कुछ दूरी तक शोणित-धार बही है
अश्रु भरे दृग,पृप के सँग-सँग चौंके मथुरा वासी
वासव की प्रतिमा के आगे मरी पड़ी है दासी
यह तो अरे ! सुनयना जो वासव को अति प्यारी थी
वासव थी रूपाग्नि, सुनयना उसकी चिनगारी थी
मस्तक से लोहू की धारा बह धरती पर छायी
चरणो पर सिर पटक-पटक नयना ने प्रीति निभायी
यह अभिनव संबंध प्यार का, यह बलिदान अमर है
हार गयी वासव, उसने जीता प्रेम समर है
यह उत्सर्ग, प्रेम की ऐसी परिणति बहुत बड़ी है
प्रस्तर-प्रतिमा के आगे वह रक्त-स्नात पड़ी है
मरकर भी अमर सुनयना, लगता-नहीं तरी है
ऐसे प्रेमोत्सर्गो से ही पृथ्वी हरी-भरी है
श्रद्धा से झुक गया नृपति का शीश प्रेम-वेदी पर
दृष्टि पड़ी फिर वासव की देदीप्य मूर्ति के ऊपर
चकित ठगे, विस्मय-विमुग्ध रह गये निरख प्रतिमा को
‘‘यह अपूर्व कृति देख जिसे अचरज होगा ब्रह्म को
यह तो वासव की सच्ची प्रतिमूर्ति लग रही है रे !
निरख-निरख इसको अन्तर में ज्योति जग रही है रे !
ज्योति कि जो रग-रग में कंप,पुलक-सी भर देती है
प्रथम दृष्टि में मंत्र-मुग्ध जन-जन को कर देती है
लगता है वासव का विरह चैन, सुख खा जायेगा
बाडव या दावाग्नि सदृश घर-घर में छा जायेगा
वह क्या नृप जिसने सुख-दुख जनता का जिया न भोगा
मैं न जानता था-ऐसा परिणाम दंड का होगा
इधर दृष्टि है राज-न्याय पर, उधर प्रेम पलता है
मापव मन हिंदाल,कुपित होता फिर भी जलता है
जलती है प्रेमाग्नि, उसे सुखा-चैन नहीं मिलता है
उधर प्रेम में पागल है, प्रतिकार इधर खिलता है
कहा किसी ने- ‘‘वासव की इच्छा थी-मूर्ति खड़ी हो-
यमुना के तट पर, आधार शिला मोतियों जड़ी हो‘‘
‘‘क्यों न अभी प्रतिमा को, यमुना तट पर स्थापित करे
दुख का करूँ भार हल्का पुरजन का, उद्घोषित कर‘‘
हुई घोषणा नृप की ओर उठा कर कर को
जय जयकार मना दोनो की, पुरजन लौटे घर को