ईसा के हाथ कटे
शोहरत है शाह की ।
बने खूब ताजमहल
राजसी अहं के
अन्तहीन रात सघन
ठाठ हुए तम के
अर्थहीन दीप शब्द
भाषाएँ सलाह की ।
शब्द आज बन बैठा
अर्थ का दरबारी
आत्मबोध करता क्यों
स्वयं से किनारी ?
सत्य को ज़रुरत सच
आ पड़ी पनाह की ?
भटके श्रम भूखा ही
धूर्त फले- फूले
मरुथल में नाच रहे
रेत के बगूले
किसे पड़ी प्यासे की
आह की, कराह की।