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शोहरत है शाह की / शशिकान्त गीते

ईसा के हाथ कटे
शोहरत है शाह की ।

बने खूब ताजमहल
राजसी अहं के
अन्तहीन रात सघन
ठाठ हुए तम के
अर्थहीन दीप शब्द
भाषाएँ सलाह की ।

शब्द आज बन बैठा
अर्थ का दरबारी
आत्मबोध करता क्यों
स्वयं से किनारी ?
सत्य को ज़रुरत सच
आ पड़ी पनाह की ?

भटके श्रम भूखा ही
धूर्त फले- फूले
मरुथल में नाच रहे
रेत के बगूले
किसे पड़ी प्यासे की
आह की, कराह की।