पीसकर अपनी अस्थियाँ
ईंटें बनाता है
श्रम के धधकते आवे में
देर तक पकाता है
अपने खून पसीने के घोल से
उनकी तह पर तह चिपकाता है
वो श्रमिक धरती के कलेजे में
अपने कठिन श्रम की ठोस नीव गाढ़ता है
अपने आराम में फेंटकर
सुगढ़ कल्पनाओं के रंग
निर्वस्त्र प्राचीरों को रंगीन ओढ़नी ओढ़ाता है
भोर के स्वप्न-सी हो उठती हैं साकार भव्य इमारतें
फिर उन्हीं में उसका
प्रवेश निषेध हो जाता है
वो श्रमिक थकता नहीं
अपमानित अनुभव करता नहीं
सरल सोच की समीर में स्वयं को सहलाने
फिर निकल पड़ता है कोई नई इमारत बनाने।