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श्राद्ध-कर्म / अशोक शाह

वह अपने खुश होने की लगाता कीमत
तय करता आशीर्वाद के अलग-अलग मूल्य
देख सामने वाले की चेहरे की चमक
कपड़े की सफेदी से गढ़ता है लक्ष्य
खींचता तब वह अपनी इच्छाओं की दीर्घ लकीर
और सहम जाते आप देख खिसकता अपना चीर
मिमियाते है हर तरफ से घिरा कोई शिकार
लकीर को छोटा करने लगाते पूरा भार
कभी हँसते, मुस्कुराते, गुस्साते, गम्भीर होते
चिढ़ते, गुदगुदाते कोशिश लगातार करते
माथे पर चमचमा जाती पसीने की बूँदे
तभी याद आता पिताजी हैं चल बसे
और दिखानी है उनके प्रति श्रद्धा उसे
विवश आखों की निरीहिता सामने वाला खूब जानता है
वह जानता है कि मुक्ति का द्वार उसके ही है हाथ

वह मंत्र पढ़ता, फूँक मारता छींटता पानी है,
तिलक लगाता अंगुलियों में कुश बाँधता,
सिर्फ वही जानता पान के पत्ते कहाँ रखना है,
सुपारी सीधी या तिरछी रखी
सौ का नोट पान के ऊपर या केले के नीचे
कब जलानी है अगरबत्ती किस जगह पर
और उसका धुआँ कहाँ-कहाँ फेंकना है
खटिया, बर्तन, छाता, गदद्ा, चादर, धोती,
कुर्ता, छड़ी कराता है सबका स्पर्श अघोरी
बात स्वर्ग जाने की है, पढ़ता कुछ और मंत्र
कुछ उपर कुछ नीचे दाएँ-बाएँ का वशीकरण
सरकाता चीजों को छूता रहता यंत्रवत
एक वाक्य क्या एक शब्द भी नहीं बोलता शुद्धवत्
पर वसुलता है कीमत एक-एक शब्द का तर्पण
आपके हाथ में दक्षिणा सदा रहना चाहिए तत्पर

सावधान की मुद्रा में बैठे-बैठे झुकती जा रही है कमर
शैनेः शैनेः लिफाफा होता जा रहा रिक्त भुगतकर
जितनी लम्बी उम्र और जितना बड़ा था पद मृतक का
उसी अनुपात में होता है सौदा समय का
कुल-गोत्र पूर्वज परिवार सब किये जाते हैं याद़
कर-कर कर्मकाण्ड अनूठा आ जाती नानी भी याद



उन दस दिनों का मानसिक संत्रास
भुला ही देता मरने वाले का संताप
पर बात अभी बनी नहीं

लाइन छोटी होती देख
लगती उसे जमीन खिसकती
दे जाता उसका सब्र जवाब
‘साहब आप ही कर लो श्राद्ध-कर्म
स्वर्ग का नहीं खुलेगा द्वार
लो अब मैं जाता हूँ ‘निज गृह’
सुन आशंकित आप होते बदहवास
आता मृत पिता का चेहरा याद
नरक में घूमते दीखते पैर लहूलुहान
घिघियाते, करते अब दृढ़ संकल्प
लकीर लघुतर करने का छोड़ मोह अब
‘भइया मान भी जाओ हो न रुष्ट
ले लो जितना हो अभीष्ट
रूठो मत न दिखाओ आँख
काम अब तो करो समाप्त’

हाथ जोड़ते पाँव पूजते होती हैं आँखें नम
कर लेते आखिरी संकल्प हो और विनम्र
मुक्ति पिता को मिले न मिले
दस दिनों के संत्रास से होने दो मुक्त
उसके भी माथे पर नाच उठती स्मित रेखा प्रसन्न
हँसता वो पढ़ता मंत्र अभ्यस्त
देता आशीर्वाद दिवंगत को मिलेगा अब स्वर्ग
जय हो यजमान पूजो चरण कमल
आखि़री दक्षिणा दो हो जाओ विमल
सहसा उसकी जाति के चार और जन
हो जाते ईश्वर की तरह प्रकट
पूजो, पूजो उनके भी चरण
देख आए हैं पथ पिता का स्वर्गारोहण

जातियों में बँधे जीवन की यह कैसी अकुलाहट
पीढ़ियों से चली आ रही दक्षिणा छटपटाहट
ये बाँधती हैं, मारती हैं देती संत्रास अथक
डरती, डराती करती नृत्य जीवन से पृथक
पवित्र नहीं अपवित्र हैं शापित जीवन की ये चमक
अतीत की स्वामिनी ये भविष्य पर अटूट पकड़

मध्य इनके जीवन नहीं, बस रीति रिवाज हैं
तारती है, तोड़ती है, ये ही नरक की द्वार हैं
धर्म इनका दास, शापित ईश्वर है डरा हुआ
जन्म से मृत्यु तक कैसा कचरा है फैला हुआ
हारती मनुष्यता, जीतती लिजलिजी यह शल्क क्यों
क्या बचाने में लगा मन है ढूँढ़ता नहीं विकल्प क्यों

लो मैं लेता जीवन का अंतिम संकल्प सजग
मत्योपरान्त इस शरीर को बस कर देना भस्म
छोड़ देना राख वहीं जैसे धूम्र हुआ विलीन
शेाक-संतप्त न होना मित्र न ही विचार तल्लीन
शृगालों को भोज न देना करना न कोई मंत्र-पाठ
शेष रहेगा न कुछ भी यह बात तुम रखना याद
नहीं चाहिए मोक्ष न कल्पित स्वर्ग की छाया भी
कल्पतरु या कामधेनु वे अपसराएँ बस माया ही

हर वृक्ष धरा का कल्पतरु हर इच्छा ही कामधेनु है
उठती गिरती साँसों की लय ही जीवन की वेणु है
शापित न हो मत्यु, करना न किसी विधि की पुनरावृति
मोक्ष साथ लेकर जाऊँगा होगी न जीवन की आवृत्ति