Last modified on 19 अप्रैल 2009, at 01:43

श्राद्ध / ऋषभ देव शर्मा


हे पितः !

आपके चरणों में नत है
आपका यह आत्मज _
सदा का अकर्मण्य
बामन का बैल .

किस अधिकार से करूं
मैं तर्पण-अर्पण ?
कहाँ चुका सका आपका ऋण ?
कभी चुका भी न सकूंगा .


सभी कुछ तो कर दिया नष्ट मैंने ,
जो आपने सौंपा था.
कहाँ सँभाल सका
आपके तेज को ,तप को,
आपका यह क्षुद्र छोटा बेटा ?

आप थे त्याग और दान की प्रतिमूर्ति,
और मैं बन बैठा भिखारी !
कामनाओं की वैतरणी में बिलबिलाता
नारकीय कीट बन गया मैं तो ;
आपके स्वर्ग से विमुख हो गया न !

खो दिया मैंने सम्मान
जो अर्जित किया था आपने .
लांछित किया आपके यश को
और व्यर्थ, विद्या को.


मेरे पिता!
मेरे गुरू भी थे आप
और ईश्वर भी .
आपकी अवज्ञा की मैंने:
आप मन के शासक थे ,
मैं देह का दास बन गया !

अब तो
इतना भी साहस नहीं बचा -
छू सकूं आपके पावन चरण ,
मांग सकूं क्षमा .

~*~

पर आप तो पिता हैं -
गुरू हैं -
मेरे भगवान् हैं -
आशीष रची अपनी हथेलियों से
छू सकते हैं मेरा माथा,
जला सकते हैं मेरा कलुष .

~*~

हाँ , मेरे कानों में गूँज रहा है
आपका स्वस्ति-वाचन .
बजने लगे हैं मेरे रोमांच में
वे सारे स्तोत्र
जो गद्गद कर देते थे आपको-
आपके कंठ को.

अपनी सुनहरी भुजाओं में
भर लिया है आपने मुझे !


मेरे ये आंसू स्वीकार करो; पितः !!