कैसा सावन
न नीम पर झूले
न आकाश में घटा
मटमैली सन्ध्या उदास
एक छाया बह रही है छीज
एक पक्षी एक जहाज
एक पतंग एक आत्मा
विवश बहते जा रहे आकाश में
बादल नहीं हैं
चूँकि होता ही नहीं
इसलिए बीतता भी नहीं समय
सम्पूर्णता को एक साथ न देख पाने की
हमारी असमर्थता ही
समय के बीतने का भ्रम
पैदा करती है
अभी तक अस्तंगत सूर्य का प्रतिबिम्ब
वहीं गँदले पानी में थिर है
हो रहा होगा कहीं सूर्योदय
धुएँ की पतली लकीर बल खाती
कूड़े के सुलगते ढेर से उठती है
और अन्तरिक्ष में
आकाशगंगा का निर्माण करती है
सावन है
सूख चली है गंगा
दुख है संसार में घनघोर
दुख की घनघटा घिरती आ रही
धंस रहा है पंक में
ताँबे का थाल
समझ में आती ही तब हैं
जब दूर निकल जाती हैं असाधारणताएँ...
वह पक्षी खो गया पतंग में
पतंग जहाज में, जहाज आत्मा में
आत्मा की अमर पीड़ा
देह की नश्वरता ही
आखिर को ढोती
आत्मा की अमरता का भार
नश्वरता, तुम्हीं ने तो दिया सब संगीत
सारे राग सारा प्रेम अपनत्व सारा
तुम्हारा ही तो दिया है...
वह पतंग वह जहाज वह पक्षी
गये सदा के लिए... सोचो तो
अब उन्हें कभी कोई नहीं देख पाएगा
बन्द हो गयी सदा के लिए
कोने की छोटी-सी परचून की दूकान
जम कर छँटनी हुई
स्कूलों, दफ्तरों, मिलों, अस्पतालों में
इतने सारे हाथों के हाथ से
चला गया इतना कुछ सदा के लिये
सदा के लिए लुप्त हो गये वे खेत
बन गया फ्लाई-वे
बन कर बगूले धूल के
उड़ गये सब खेत
आकाश में बादल नहीं हैं और सावन है!
जोकरों-सी वर्दियों में बँधे-कसे
भारत के सम्मानित नागरिक
ले जाए जा रहे हैं बैंड में
बीमार काया की छाया दीवार पर
छायाओं का जुलूस
जोर-जोर पीटता
ढोल को
इसी मिस जालिम वक्त की धुनाई करते हुए
दो घंटे की एवजी पर आलू-पूड़ी अलग
रात रेंग रही है
पाँव फन पर है
थम गया है बैंड कस गयी हैं मुट्ठियाँ
नदी घिसट रही है अनावृष्टि में
देश घिसट रहा है
श्रावण शुक्ला सप्तमी है आज
पानी की बूंद नहीं!
ऐसे कराल कलिकाल में
बाबा कुछ तो कहिए उपाय..
तुमसे ज्यादा और कौन जानता है भूख को
भारत की अर्थव्यवस्था के
दारिद-दसानन के चेहरे
तुमसे ज्यादा कौन पहचानेगा
कहाँ से आता है उसकी नाभि का अमृत
तुम्हें सुनने के लिए रुक गये हैं लोग...
माना कि असमर्थताएँ तो
कवि के उपापचय में ही शामिल हैं
सो हम भी चलो
चुप हो बैठते हैं
लेकिन बैठ नहीं पाते, बाबा!
पीड़ा घनघोर है
मघा पूर्वा पुनर्वसु सब गये सूखे...।