श्रीपुर नगर / प्रेम प्रगास / धरनीदास

चौपाई:-

चलत बहुत दिन पंथ सिराना। अमरे श्रीपुर के सनिधाना॥
देख्यो नगर दीर्घ अति भारी। ध्वजा पताका धवल अटारी॥
सबके चित्र विचित्र झरोखा। अमरपुरी परजा को धोखा॥
चौपारन कदली चहुँ फेरा। हलकन हस्ती चरे घनेरा॥
धोवहिं रजक पंवर झारी। नाना रंग वहुत जनकारी॥
पुहुप वाटिका सघन सोहाई। अद्भुत नगर वरनि नहिं जाई॥

विश्राम:-

उडहिं परेवा दुहुदिशा, नाचहिं वहु विध मोर॥
देखि नयन टक लागेऊ, जैसे चन्द चकोर॥134॥

चौपाई:-

वहुरि सरोवर अमरे जाई। अष्टधात जंह घाट बंधाई॥
देखत दृष्टि जहां विछिलाई। तंह कैसे पगु रह ठहराई॥
मेवा मधुर वहुं दिशि फरई। धरनी नाम कहां ले धरई॥
कमल आदि जत पुहुप वखाने। ते सब सरवर के डिग आने॥
अति निर्मल जल गहिर गंभीरा। हेम सदा जस गंडक नीरा॥
हंस आदि जत चाहिय पेखी। सो सब देख्यो कुंअर विशेषी॥

विश्राम:-

घाट निकट वट छायहीं, वैठु कुँअर तँह जाय।
देखि लुभानो छन हि छन, छोडे छांडि न जाय॥135॥

चौपाई:-

जंह लगि जाति तुरंग वखानी। मंजन करहिं पियावहिं पानी॥
दर्पन सो झलके तन ताके। विज्जु छटा चारो पग जाके॥
जुदा जुदा अति सुन्दर नारी। कनक कलश रूकमिनि पनिहारी॥
नूपुर शब्द उठे झनकारा। चौरासी जनु वाजु तुखारा॥
सूत पाट गेंडुर कर जानी। जनु अगस्त उर चन्द लुकानो॥

विश्राम:-

पुनि पंखी मत कीन्हेऊ, सुनिये राजकुमार।
तुम विश्राम करो क्षण, मैं चरयों दवरि॥136॥

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