"अरे सुखमय आमोद-प्रमोद मधुरता-मय रे विभव-विलास
बुझा तुम सकते हो क्या कहो कभी अन्तर-तर की भी प्यास
लालसा-मग्न रहे अविराम मान-मद में प्रमत्त हो प्राण
क्षुद्रता में बीता सब काल हुआ कुछ नहीं आत्म कल्याण।
व्याप्त हो रहा यहाँ चहुँ ओर सुशीतल सौरभ स्निग्ध महान
वायु पर इसमें एक विषाक्त मिली है पड़ती मुझको जान
मलिन करते विद्युत-आलोक कर रहे ये मणि-दीप प्रकाश
हो रहा इसमें मुझको आज एक गुरुतर अभाव अभास।
नहीं नयनों में मेरे नींद रिक्त यह पड़ा स्वर्ण-पर्यक
विकलता लखकर मेरी आज व्योम में हंसता शुभ्र मयंक
शारदा भगिनी मय गुणधाम उसे मैं गई मोह में भूल
आज उपजाती उसकी याद हृदय में रह रह दारुण शूल।
किया यद्यपि मैंने बहुवार उपेक्षा-युत उसका अपमान
बहिन को क्षमा-दान कर बहिन न क्या कर सकती दुख से त्राण
सजा है शयन कक्ष अभिराम चतुर्दिक छाया नैश प्रभाव
एकदा लक्ष्मी के उर बीच उदय हो आए सात्विक भाव।
सत्व-मय भावागम के साथ जग उठी उर विराग की ज्वाल
फेंक झट उर से कांचन-माल किया धारण रुद्राक्ष विशाल
भवन से निकल चल पड़ी शीघ्र लक्ष्य कर विद्यारण्य पुनीत
निमिष में ही अनित्य पर अहा नित्य ने पाई पूरी जीत।
डोलते थे विटपों के पत्र जाग था उठा अरण्य प्रदेश
विहग थे गाते सुन्दर गीत किया जब उसने वहाँ प्रवेश
शारदा करती थी हो शान्त उषा की उपासना नत भाल
देख लक्ष्मी को सम्मुख खड़ी रह गयी स्तम्भित सी कुछ काल।
दबाकर फिर विस्मय के भाव दौड़कर लिपट गई सस्नेह
रही आँखों से आँखें अटक हृदय से हृदय, देह से देह
रुंध गये दोनों ही के कंठ बन गई वाणी मूक अपार
बह पड़ा अन्तर का सब मैल लोचनों से बनकर जल-धार।
प्रेम का वह था सहज स्वरूप न था उसमें कृत्रिमता-रोग
सत्य ही आत्मा से था अहा शुद्ध वह आत्मा का संयोग
सुस्वागत स्वागत प्यारी बहिन तुम्हारा करके स्वागत गान
धन्य मैं हुई आज सविशेष धन्य है यह मेरा उद्यान।
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भला रह सकते कब तक कहो परस्पर हम दोनों प्रतिकूल
नहीं हैं हममें कुछ भी भेद एक शाखा के हम दो फूल
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पुण्य वह घटिका मंगल मूल आज की सन्ध्या है या प्रात
खिल रहे, शांत सरोवर बीच कुमुदिनी-कमल एक ही साथ।
स्वर्ण किरणों में करता स्नान प्रणुल्लित यह मेरा उद्यान
भूमि से मिलने को क्या आज स्वर्ग ही उतर पड़ा मुद-प्राण।
-‘श्री शारदा के आवरण पृष्ठ पर लक्ष्मी और सरस्वती के सम्मिलन का रंगीन चित्र अंकित था। व्यवस्थापक के आग्रह से यह कविता उसी चित्र पर लिखी गई थी।
-श्री शारदा, अक्तूबर, 1920