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श्रृंगार रस / हरजीत सिंह 'तुकतुक'

एक़ बार हम मन्च पर खडे कविता सुना रहे थे।
श्रोता श्रृंगार रस में डूबे जा रहे थे।
           
हमारे कंठ से
कविता कामिनी बही जा रही थी।
परन्तु हमारी नज़र
पहली पंक्ति से आगे नहीं बढ़ पा रही थी।

क्योंकि पहली पंक्ति में बैठी एक बाला
बार बार हमें देख कर मुस्करा रही थी।
और लगातार
अपनी सैंडल सहला रही थी।

जब काफी देर तक यह प्रक्रिया नहीं रूकने पाई।
तब हमारी अन्तरात्मा ज़ोर से चिल्लाई।

हमने कहा
हे देवी, क्यों सेन्टर की पालिसी अपना रही हो।
ऊपर से मुस्करा रही हो ।
नीचे से चप्पल दिखा रही हो।

अरे अगर खुन्दक आ रही है
तो खुन्दक उतारो।
चप्पल उतारो
और दे मारो।

वो बोली
कविवर आप व्यर्थ ही घबरा रहे हैं।
शायद मेरा व्यवहार समझ नहीं पा रहे हैं।

आप के श्रृंगार रस में गोते लगा रही हूं।
इस लिए बार बार मुस्करा रही हूं।
और मेरे पति कहीं गोते ना लगाने लगें।
इस लिए यह सैंडल सहला रही हूं।