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षड़यंत्र / चन्द्रकान्त देवताले


स्मृतियों की देहहीन नदी
हवा में उड़ रही है
और कुएँ के भीतर नहाती हुई शाम
तुम्हारे आईने में मेरा नाम पुकार रही है
बादलों का कोट और बर्फ़ के दस्ताने पहनकर
परछाइयों के सहारे खड़ा सुन रहा हूँ मैं
तुम्हारे भीतर बजता हुआ जल-तरंग
जो किसी दूसरे की ख़ुशी नहीं
मेरा षड्यंत्र है
काँटों पर तैरते हुए साये हैं इस तरफ़
और हँसती हुई तुम्हारी नींद है
पानी के शहर के उस ओर
फिर भी मैं गायब नहीं हूँ
लहराते हुए कच्चे बादल की तरह
मौजूद हूँ तुम्हारी निर्वसन पीठ के पास

रेत फैलती जा रही है लगातार
और सपनों के नीले ज्वलनशील परदों के बेहद पास
एक मोमबत्ती जल रही है दुश्मन की तरह तैनात

पर एक शब्द उड़ रहा है चिड़िया बनकर इस वक़्त
और होंठ बनकर दो तितलियाँ हँस रही हैं

समुद्र जगेगा जब भी सुबह के आकाश में
दीखेंगी तुमको मेरी आँखों की नावें
नवंबर के धुंध काटते झाग में