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षष्ठ सर्ग / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

आया जयन्त प्रभु पास हाथ मलता-सा।
अपने कुकर्म की ज्वाला में जलता-सा॥
रह गया मात्र शर से अंगुल भर अन्तर।
कर आर्तनाद वह गिरा राम के पग पर॥

" त्राहि-त्राहि हे नाथ! शची-सुत नत मैं।
द्युलोक-निवासी, विनय-विनत, मदगत मैं॥
मैं इन्द्रपुत्र, क्रतुभुक, ऋभु, विवुध, त्रिदश हूँ।
युगपत समर्थ सुर, सुमनस, अमर, अलस हूँ॥

मैं सतत मुक्त, स्वच्छन्द, विवेक-विरत था।
सद्धर्म-शून्य मैं अविरत पाप-निरत था॥
संतत अनीति पर चरण मेरे बढ़ते थे।
प्रतिदिन निर्भय पाखण्ड नए गढ़ते थे॥

मेरे मन में था गर्व पिता के बल का।
यम, काल, वरुण, वसु, पूषा, अनिल, अनल का॥
मैं काम-कलभ पर अति मदान्ध बैठा था।
खुद को ही सबसे बड़ा मान ऐंठा था॥

क्रीडा-स्तुति-मद-मोद-विलास-सदन में।
मैं खोया था गायन, रति, लास्य, मदन में॥
मैं भोग-भक्त, प्रतिपल सुख-अन्वेषी था।
इसलिए सहज ही सदगुण का द्वेषी था॥

वह दर्प चूर्ण हो गया, क्षमा-याचक मैं।
हे नाथ आपकी कीर्ति-कथा वाचक मैं॥
अपनी करनी का ब्याज सहित फल पाकर।
मैं आज शरण में पड़ा मरण अपनाकर॥

मैंने विष को ही अमृत मान लिया था।
चिर निन्दा को ही स्तुति जान लिया था॥
जो लोक-वेद से वर्जित कर्म कलुष हैं।
उनको ही समझा था ऋग, साम, यजुष हैं॥

लेकिन मुझको अब यही बोध होता है।
स्वछन्द इन्द्रियों वाला नर रोता है॥
अनियंत्रित मन का सर्वनाश निश्चित है।
कामुक जन का कल्याण नहीं किंचित् है॥

इच्छाओं का पागल बहाव भयप्रद है।
तृष्णा मनुष्य के सर्वनाश का नद है॥
प्रभु! देवजाति तो जन्मजात भोगी है।
हे सुयश! 'सुधर्मा सभा' भोगी-रोगी है॥

हे नाथ! आप तो खुद अन्तर्यामी हैं।
मेरे जैसे जन पतित, क्रूर, कामी हैं॥
हे प्रभो! स्वत्व, वैभव ऐसे होते हैं।
भारी घमण्ड जो अनायास देते हैं॥

हे विभो! आप ही ब्रह्म, सृष्टि-कर्ता हैं।
आजान देव, मूढों के मद-हर्ता हैं॥
हे विश्व-विनायक! आप दीन-वत्सल हैं।
हे प्रभो! आपका अति कोमल हृत्तल है॥

मैं तुच्छ कीट से भी निहीन, नीचा हूँ।
मैं सतत पाप-पाखण्ड-वारि-सींचा हूँ॥
मैं पामर, विभव-मदान्ध, दण्ड-लायक था।
मैं अष्टशत्रु का मित्र, धृष्ट नायक था॥

खुल गए ज्ञान के चक्षु दण्ड मिलने से।
जैसे खुलते हैं कंज सूर्य खिलने से॥
हे चिर शरण्य! तव चरण-शरण आया हूँ।
मैं बुद्धिहीन, भय-व्याकुल, भरमाया हूँ॥
मैं था अविज्ञ प्रभु के प्रताप औ' बल से।
इसलिए किया अपराध काक बन छल से॥
उसका अति समुचित दण्ड मिला, कृतकृत हूँ।
जब तक न करेंगे आप क्षमा, मैं मृत हूँ॥

दें दण्ड और कुछ मैं सहर्ष सह लूँगा।
उसको स्वकृत्य का प्रतिफल मैं कह दूँगा॥
हे ईश! मोह में ज्ञान छिपा था मेरा।
मुझको प्रवंचना ने आकर था घेरा॥

मैं था उन्मादी और अनय-रत, चंचल।
नित घूम रहा था थाम्ह विभव-बल-अंचल॥
अपनी कुत्सा का किन्तु कटुक फल पाया।
हे अशरण-शरण! शरण में मैं हूँ आया॥

प्रभु! आप प्रमोद-निकेत, कंज आनन हैं।
आप से विलसता विशद विश्व-कानन है॥
मैं तो पर-द्रोही और दुराचारी हूँ।
फिर भी करुणार्द्र कृपा का अधिकारी हूँ॥

दें प्राण-दान रघुवीर! दया-व्रत-धारी!
हे दुःख भंजन! यह जले न देह हमारी॥
हे जगत्पिता! मैं तो बालक दुर्मति हूँ।
कैसा भी हूँ, प्रभु की आखिर संतति हूँ॥"

फिर घूम उर्विजा-ओर ह्रदय निज धर कर,
बोला जयन्त कम्पित तन, वाणी थर-थर।
आँखों से अविरल अश्रु बहाता विह्वल—
" हे मातु! तुम्हारा ही अब मुझको सम्बल॥

हे जनक-नन्दिनी! आप जगज्जननी हैं।
आप से अलंकृत, झंकृत नभ-अवनी हैं॥
धरती माता—सी आप क्षमाशीला हैं।
संहार-सर्जन भवती की दृक-लीला हैं॥
आप ही त्रिपुरसुन्दरी, परा विद्या हैं।
आप ही महाचिति-शक्ति, स्फूर्ति, आद्या हैं॥
आप ही कला, कलकांति, शांति, शुचि, श्री हैं।
आप ही कीर्ति, श्रुति, नियति, सती, धी ही हैं॥

हे कृष्णकुंतला! जगपूज्या! बहुमान्या!
हे महोत्सवा! वरदा! फलदा! धन-धान्या!
दो अभयदान मेरा जीवन निर्भय हो।
भवती का हृदय न मेरे प्रति निर्दय हो॥"

सहसा बोले सौमित्र कड़क घन-स्वर से।
" हे तात! द्रवित मत होवें पाप-प्रकर से॥
यह दुष्ट पुलोमा दैत्य-सुता-सुत, घाती।
यह है दुर्गुण का दुर्ग, परम उत्पाती॥

यह नीच क्रूर केवल असत्य-भाषी है।
पर-तिय-लोलुप, मन्मथ-मदान्ध नाशी है॥
इसका मस्तक काटना नीति सम्मत है।
मेरा ही नहीं, शुक्र का भी यही मत है॥

सारे दुर्व्यसन सहर्ष सहज इसमें हैं।
यह स्वैराचारी पाप सहस इसमें हैं॥
यह कामी, निठुर, अवश्य नरक-कीड़ा है।
इसके मुँह पर देखिए कहाँ ब्रीड़ा है॥

इसने गुरुतर अपराध किया आर्या का।
रघुकुल-कलकमल-दिवाकर की भार्या का॥
इसने बिन कारण घात किया, बिन सोचे।
भाभी के कोमल चरण बिना भय नोचे॥

सोचिए क्षमा का क्या यह अधिकारी है?
बल के घमण्ड में पागल, व्यभिचारी है॥
इसको कठोरतम दण्ड प्रभो! अब दीजै।
करके यों निर्मल न्याय, सुयश जग लीजै॥"
इतना कहकर जब मौन हुए श्री लक्ष्मण।
बोलीं वैदेही बिखराती करुणा-कण—
" हे नाथ! छोड़िये इसे दण्ड क्या देंगे।
इसकी स्त्री का क्या सुहाग, प्रभु लेंगे?

आ गया शरण में अतः मरण मत दीजै।
हे आर्यपुत्र! इस पर अब तनिक पसीजै॥
प्रिय देवर जी भी सदय अवश्य बनेंगे।
इसके न रक्त से उनके हाथ सनेंगे॥

छोडिए, स्वयं कर्मों का फल पायेगा।
हिम-खण्ड सदृश कुछ पल में गल जायेगा। "।
सुनकर भार्या के वचन जलद-तन रघुवर,
बोले जयन्त से सिंह सदृश मंद्र-स्वर-

" ऐ इंद्र पुत्र! तू है असाध्य अन्यायी।
तू मृत्यु योग्य है कहते मेरे भाई॥
जिनका तूने अपराध किया पर, वे ही
कह रहीं क्षमा करिए शुचि-शील-सनेही!

पर जो भी जग में है कुकर्म-पथ-गामी।
जो हैं जगद्रोही, दुष्ट, क्रूर, खल, कामी॥
पर-सुख पर-वैभव देख जो घबड़ाते हैं।
औरों की उन्नति देख जो जल जाते हैं॥

जो अजागलस्तन का पियूष पीते हैं।
जो कलित कल्पना में केवल जीते हैं॥
जिनको असत्य की छाया प्रिय रजनी है।
जीको छुटती रिपु के समक्ष कँपनी है॥

जिनसे न भलाई की भव को आशा है।
जिनकी न धर्म-सदगुण में अभिलाषा है॥
जो उच्छृंखल, अति कुटिल और पामर है।
जिनको कुकर्म करते न तनिक भी डर है॥
जो हैं कलंक नरता के औ' लम्पट हैं।
जिनके न दान के लिए ये कर सम्पुट हैं॥
जो डाह-द्वेष से नित्य जले जाते हैं।
जिनसे निर्भय सद्धर्म दले जाते हैं॥

जो सुजन-संत से सदा रुष्ट होते हैं।
जो 'पर' को दुख दे स्वयं पुष्ट होते हैं॥
उन सबको देना दण्ड नीति मेरी है।
उनके विरुद्ध ही मेरी रण-भेरी है॥

जो बिना बात स्वजनों से भी लड़ते हैं।
जो शोषण के बल पर सदैव बढ़ते हैं॥
जिनको न स्वार्थ के सिवा अन्य अनुभव है।
जिनको अति प्रिय प्रतिक्रियावाद का शव है॥

जो असहायों में त्रास भरा करते हैं।
जिनके समुदाय से सुजन मरा करते हैं॥
जिनके प्राणों के पीछे धन का कण है।
जिनका पशुत्व से भरा हुआ हर क्षण है॥

जो भी विनीत, सद्धर्मी, नर-पुंगव हैं।
जो भी वरेण्य मानवता के वैभव हैं॥
जो हैं पराक्रमी, वीरव्रती, प्रणपाली।
जिनके प्रताप से दुष्ट सिहरते खाली॥

जिनका विकास सुजनों को नहीं सताता।
जिनसे राजा औ' रंक समादर पाता॥
जिनसे पृथ्वी की हरी-भरी डाली है।
जिनसे समस्त संसृत गौरवशाली है॥

मैं उन सबका अतिशय विनीत सहचर हूँ।
प्रेमी, विनम्र मनुजों का मैं अनुचर हूँ॥
जिनका चरित्र धरती पर अमल धवल है।
उनके हित अर्पित जीवन-ज्योति सकल है॥
जो परम दयालु, कृपालु, धर्म-ज्ञाता हैं।
जो ज्ञानी, विज्ञानी, स्वदेश-भ्राता हैं॥
ये ही हैं मेरे सखा, स्वामि, जीवन, धन।
उनके ही लिए समर्पित मेरा तन-मन॥

जिनमें न अष्टदुर्व्यसन शरण पाते हैं।
जिनके न पंचछल निकट कभी आते हैं॥
जिनको सदगुण का एकमात्र सम्बल है।
जिमें पौरुष का जलता प्रखर अनल है॥

जिनकी न भावना परतिय में लगती है।
जिनमें चिराग की विमल ज्योति जगती है॥
जो जन्मभूमि का कण-कण गले लगाते।
वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते॥

जो हैं सुहार्द, संग्रामजयी, सुविचर्षण।
जिनके कृतित्व में गरिमा है आकर्षण॥
जो देश-धर्म के लिए समुद मिट जाते।
वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते॥

मैं धर्महीन सत्ता का नाश प्रकट हूँ।
चिर दर्प-द्वेष-ईंधन के लिए लपट हूँ॥
जो अनुशासन में बँधे नाम कमाते।
वे पुरुषसिंह ही मेरे मन को भाते॥

देवता सत्य-संयुक्त सदा रहते हैं।
वे नहीं अनृत के सागर में बहते हैं॥
पर, ओ मघवा का पुत्र प्रचण्ड घमण्डी।
तुझको दूँगा मैं दण्ड अरे पाखण्डी॥

तूने कपड़े से आग पकड़ना चाहा।
खाली हाथों से नाग पकड़ना चाहा॥
जो सिंह-रवनि पर तूने दृष्टि गड़ाई।
उसकी तुझको करनी होगी भरपाई।
तू भूल गया निज पिता इन्द्र की करनी।
जिनसे घायल है आज तलक यह धरणी॥
किसलिए द्विलोचन से सहस्र दृगधारी।
बन गए पुरन्दर पुनः कथा पढ़ सारी॥

जा पूछ शची से नृपति 'नहुष' की लीला।
किस तरह बची तब जननी परम सुशीला॥
किस तरह स्वर्ग से पतित हुए बन पापी।
साथी जिनके हैं दिनकर परम प्रतापी॥

एकाक्ष पिंगली कैसे हुए 'धनद' हैं?
जा पूछ उन्हें यह किनसे मिली सनद है?
क्योंकर है उनका वाम विलोचन फूटा?
ओ कूचर उन्हीं से पूछ कहाँ क्या टूटा?

जानता नहीं तू भूप 'दण्ड' की गाथा।
जिसने 'अरजा' को पाकर अवश अनाथा॥
जब किया विकट व्यभिचार प्रलय की आँधी।
यों चली मिट गया राज्य सहित अपराधी॥

जानता नहीं रावण की कुटिल कहानी?
जब कामुक ने की रम्भा संग मनमानी।
आखिर नलकूबर-शाप शीश पर लेकर।
लौटा लंका में सुयश स्वयं सब देकर॥

कामुकता का अमिटित कलंक होता है।
शश का लांछन अब तक मयंक धोता है॥
विद्वता, मान, मर्यादा ढह जाती है।
कामुकता का जब भी प्रहार पाती है॥

तू अजर, अमर है, तुझे प्राण का भय क्यों?
चिंता, इर्ष्या, भय-भीति, शोक, संशय क्यों?
मेरे चरणों पर पड़ा बिलख रोता क्यों?
निज अश्रु-सलिल से मम पद-रज धोता क्यों?
ले, आँख तेरी मैं एक फोड़ देता हूँ।
पहला कसूर है प्राण छोड़ देता हूँ॥
यदि पुनः कभी तू यह क्रम दुहरायेगा।
तब और नहीं, बीएस मृत्यु दण्ड पायेगा॥

यह आँख तेरी अतिशय सदोष मतवाली।
इसमें ही है दीखती विभव की लाली॥
ले, इसे छीनकर, ज्ञान-दृष्टि देता हूँ।
देकर समष्टि मैं व्यर्थ व्यष्टि लेता हूँ॥

अब से पर-नारी, ज्वलित अग्नि सम जानो।
जो देता हूँ उपदेश उसे तुम मानो॥
सबसे करके तुम प्रेम बढ़ो यों आगे।
पाओ जीवन में सुयश, आयश सब भागे॥

जाओ अब ऐसा कर्म कभी मत करना।
लखकर संयोग किसी का कभी न मरना॥
जाओ, इन्द्रासन ग्रहण करो, सुख लूटो।
चिन्तित होंगे देवेन्द्र, रुको मत, फूटो॥

पाकर आज्ञा रामचन्द्र की चला दुष्ट मन मारे।
एक नयन बनकर, सलल्ज लांछन ललाट पर धारे॥
किसी तरह उठ नहीं पा रहे थे उसके दो पाँव।
काँप रहा था वह जैसे लहरों में छोटी नाव॥

देख राम का न्याय, शरण-वत्सलता;
दुर्लभ अनुकम्पा, दया-मया, निर्मलता;
आये देवर्षि समेत सप्त ऋषि सत्वर,
करने लगे सुगान पुलक, गदगद स्वर-

जय पवन तेज दिवाकर! जय अक्षय कीर्ति गुणागर!
जय सीता-सुमुख-रमण हे! जय-जय जग-ताप शमन हे!
तुमको शतवार नमन है।
तुमको अर्पित जीवन है॥
जय कृपा-सिन्धु, सुखकारी! जय परम दिव्य वपु धारी!
जय जय ओंकार-प्रणव हे! जय परम पुराण, सु-नव हे!
तुमको शतवार नमन है।
तुमको अर्पित जीवन है॥

जय आदि शक्ति-श्री-सीता! जय पतिव्रत-धर्म-पुनीता!
जय लक्ष्मण परम पराक्रम! जय सगुण, सुहार्द, सुसंयम!
तुमको शतवार नमन है।
तुमको अर्पित जीवन है॥

जय दर्प-विनाशक शक्ति-भवन, जय वीर, धीर, संताप-हरण;
जय राम लोक-नयनाभिराम, जय अक्षुण्ण गुण, शोभा-ललाम;
तुमको शतवार नमन है।
तुमको अर्पित जीवन है॥

जय रघुकुल-भूषण रामचन्द्र! जय विश्ववंद्य, स्वर मेघमन्द्र!
जय सौम्य, शांत, अलोकवरण! जय दुख-दलितों की एक शरण!
तुमको शतवार नमन है।
तुमको अर्पित जीवन है॥

तन्मय होकर
फिर कहा
देव ऋषि ने सस्वर-
" हे राम!
मानवी मेधा के चरमोत्कर्ष,
संघर्षशील नैतिकता के उज्ज्वल स्वरूप,
हे निःसंशय!
संशय की काली रात तुम्हें क्या छू सकती?
तुम मानव नव,
भव-विभव तुम्हारे चरणों में
है पड़ा हुआ,
जो सड़ा हुआ
उसके अपवारक,
निर्धारक जीवन-जगती के मानदण्ड,
योद्धा प्रचण्ड,
तुम हो जीवन,
जीवन की संस्कृति के प्रतीक,
आस्था-वर्चस
अनलस पौरुष-प्रज्वलित केन्द्र,
हे राघवेन्द्र!
जय हो, जय हो।

स्तुति कर सप्तर्षि शुचि, गये समुद निज धाम।
देवऋषी भी चल पड़े, जपते 'जय श्री राम'॥

उनके जाते ही तभी, शोभा ललित ललाम।
उतरी नभ से स्वर्ग की, भू पर अति अभिराम॥

झिलमिल-झिलमिल मधुराभा,
उतरी अम्बर से भू पर।
उसमें था पुरुष अलौकिक,
कोमल कमनीय मनोहर॥

थे अंग-अंग से उसके,
बहु फूट रहे छवि-झरने।
मानो धरती पर आया,
जन-जन का तन-मन हरने॥

कौशेय पीत कटि-पट तर,
थी लाल पाड़ की धोती।
हर चुन्नट में करते थे,
झलमल झल उज्ज्वल मोती॥

कटि से बाँहों पर आकर
था उत्तरीय लहराता।
मानो कुसुमायुध अपनी
हो मौन ध्वजा फहराता॥

तारों-से झलमल-झलमल
वे दिव्य वसन भाते थे।
मणि-मुक्ता-जटित छटा पर
लोचन न ठहर पाते थे॥

उज्जवल ललाट के ऊपर
था मुकुट मयंक चमकता।
बहुमूल्य रतन-मणियों से
विद्युत-सा सतत दमकता॥

घुँघराली अलि-अवली-सी
लहराती ललित अलक थी।
पुखराज-प्रभा से मण्डित,
स्पन्दन्हीन पलक थी॥

नीलम से, शाण चढ़े से,
स्तब्ध नयन अति शोभन।
मन मुग्ध विवश करते थे
जाने क्या था सम्मोहन॥

आलोक-वलय-परिवेष्ठित,
था वदन अनूप, अलौकिक।
उसके समक्ष सहमी—सी
लगती सुन्दरता लौकिक॥

मन्दार कुसुम की माला,
अम्लान, अनूप, नवल-सी।
थी लहर रही उर-सर पर
अवली रक्ताभ कँवल-सी॥
प्रस्वेद-विहीन वदन से,
अद्भुत सुगन्ध थी झरती।
उस पर जग की सुन्दरता
कैसे न स्वयं ही मरती॥

विश्रब्ध खड़ा था नर वह,
स्वर्गिक सौन्दर्य समेटे।
जी करता बाहु-वलय में
भर कर उसको खुब भेंटें॥

उसके तन की परछाई
भू पर न तनिक पडती थी।
उसके वर दिव्य वसन पर,
रज रंच नहीं अड़ती थी॥

सामान्य नहीं था नर वह,
धरती पर स्वर्ग खड़ा था।
मानव से विशद, विलक्ष्ण,
तन से अति दिव्य, बड़ा था॥

दायें कर में था उसके
रवि-सा पवी जग-मग करता।
बायें में अरुण कमल था
परिमल-पराग-कण झरता॥

भय पर जयकारी वय का
वह था अति तरुण यशस्वी।
स्वर्गिक ऐश्वर्य विमण्डित
था कोई मधुर मनस्वी॥

राघव ने मन में सोचा
यह मनुज नहीं निर्जर है।
है कोई देव अलौकिक,
निश्चय यह पुरुष प्रवर है॥
पशुपति की मोहक गति से
धीरे-धीरे अति सुन्दर।
वह बढ़ा जिधर बैठे थे,
दिनमणि-कुल-भूषण रघुवर॥

लखन ने देखा उसव सशंक,
बढ़ा वह जब राघव की ओर।
किया कार्मुक पर शर-संधान,
जमे ज्या पर अंगुलि के पोर॥

तभी उसने कर जय-जयकार,
कहा-" जय राघव, जय श्री राम।
आपको हे सीतापति! आज,
कर रहा सुरपति स्वयं प्रणाम॥

आपका धर्म, प्रचण्ड प्रताप,
बढ़े भू-नभ में चारों ओर।
काल की सीमा को अतिक्रम्य,
रहे शासन अविछिन्न, अछोर॥

आपका सुयश, शील, सौहार्द,
शक्ति-सामर्थ्य, बुद्धि-वर्चस्व।
आपका राज्य, निति-नैपुण्य,
बने भू-मानव का सर्वस्व॥

धरा पर रहे शांति अभिराम,
बढ़े विकसित हो मानव जाति।
दूर हो ईति-भीति, त्रय ताप,
रहे आनन्द वहाँ सब भाँति॥

पुरुष हों रूपवान, विजिगीषु,
धर्म-संवृत, कौशल-सम्पन्न।
स्त्रियाँ हों पातिव्रतपूर्ण,
कला-माधुर्य-ओज-गुण-धन्य॥
प्रीतिकर हो षडऋतु सब काल,
सबल हो यह भरतों का देश।
सतत धन-धान्यपूर्ण अविभाज्य,
रहे गौरव-मण्डित बिन क्लेश॥

आप सम्राटों के सम्राट,
स्वर्ग के अधिपति, महिमा-केंद्र।
कर रहा नमन पुनः हे राम!
विष्णु का अग्रज स्वयं महेंद्र॥

आप ही ब्रह्मा, महत्, महेश,
आप ही निराकार-साकार।
आपको हे मर्यादा-सेतु!
कर रहा नमन पुनः शतबार॥

आप ही प्रणव, जयिष्णु, तरुत्र,
भरत, भारत, ऋत, ऋभु, शिपिविष्ट।
आप ही विष्णु, विराट, वरेण्य,
आप ही शिष्ट, विशिष्ट, अभीष्ट॥

आप ही तुग्र, त्रिविक्रम देव!
अरंकृत, अभय, सदय, उरुशंस।
चित्रराती, बल-विक्रम-सिन्धु,
आप रवि-वंश-अंश-अवतंस॥

आपके चरणों में मधु उत्स,
आप श्रुतकक्ष, पुरुप्रिय राम!
आपको हे उर्जापति ब्रह्म!
कर रहा पुनः महेंद्र प्रणाम॥

इस तरह स्तुति कर देवेश,
हुए पल भर में अन्तर्धान।
राम की महिमा का सानन्द,
गूँजने लगा धरा पर गान॥