बन जाती है जो षौतन,
वो कोई महिला नहीं मदिरा है ।
पत्नी से, बच्चों से घर के भावों
जो छीन लेती है सुख चैन ।
दिन भर काम के
बोझ में दबी स्त्री
जो इन्तजार करती है
सांझ पड़े अपने प्रिय जन का ।
बढता क्रम 10-11 बजे,
घर लौटना ।
एक सूनापन से भरा,
लड़खड़ाता बदन ।
अनसुलझे बोल,
क्रोधपूर्ण एहसास के साथ ।
भय और लाचारी को,
हृदय में भरे ।
सूने पन के साथ ।
खुली आंखों में,
कटती रात निषा के साथ ।
मन में आता हैं,
बिचारों का सैलाब।
वहा कर ले जाता हैं,
सारी उम्मीदों और सपनों को ।
मन की कषिष,
रेत बनकर छोड़ती है निंषा ।
अपने अधूरेपन के ।
मां की भूमिकायें झंझोड़ती है,
एहसास दिलाती है दृढता का ।
कब बच्चों की पुकार,
चीरेगी सीना पिता का ।
और बहेगी भावों,
की मधुर धारा ।
सिंचित होगा,
घर का आंगन ।
अस्सी गंगा की बाढ़ 03 अगस्त 2012 केा
विपति का मंजर
आह! एक चुभन,
मेरे हृदय को भेद रही है ।
तबाही के मंजर को देखकर ।
जिसमें अधिंयारी रात और सोये बच्चे,
बिलख रहे हैं मां बाप से बिछड़ कर ।
जीवन भर संजोयी सम्पति का,
नामो निषान मिट गया ।
बच्चों द्वारा एक-एक क्षण को,
पिरो कर संजोयी थी डिग्रियां ।
वे खेत जिनको अपनी उंगलियों से,
धान रोप कर अभी -अभी सजाया था ।
वे घर जिनमें रहने के सपने देखे,
इन अँखियों ने हर पल ।
जिसकी बधाइयां दे रहे थे लोग,
कहां गया किससे पूछे
उस घर का पता ।
बहा ले गई नदी की प्रचण्ड धारा,
गायों और बछड़ो को ।
जिससे
वादा किया सुबह मिलने का, ।
वे कपड़े जिनको सिलवा रखा था,
जन्माश्ठमी में पहनने के लिए ।
उन बहनों को जो भाई की,
कलाई पर राखी बाधने आयी थी,
माँ के घर ।
आज पत्थरों, पेड़ो, और रेत में,
ढंूढ रहे है सब ।
अपने अरमानों के निषा,
सपनों का उजड़ा रूप ।
पेट की भूख सताती है,
पर खाने को कुछ नहीं ।
बरसात मौसम है,
भिगती काया ।
आवरण कहां से लाऊं ।
राहत,राहत,राहत,
कौन सी ध्वनी है ये ।
जिसने दहला दिया हृदय को,
कहां मिट गये वो पुलों की डोरियां ।
जिस पर देखते जोषीली,
गंगा के लहरों के वेग को ।
जल्दी से मिलने की चाह रखते थे
अपनों से ।
जो जोड़े रखती थी,
सभी वादियों को ।
अपनी मां की तरह ।
गिर गया सब पानी में,
आज बेजान होकर ।
उसका अस्ति पंजर की तरहा ।