सँकल्प / दिनेश्वर प्रसाद

मुझे अपना ईसा स्वयं होना है
अपना सलीब स्वयं ढोना है
और हर बीते क्षण की समाधि से
हर नए क्षण में पुनर्जीवित होना है
और अपने जीवन के समस्त पातकों को
स्वयं क्षमा करना है, स्वयं धोना है

मैंने सोचा था —
फ़सल जब पकेगी, काट लूँगा
फूल जब खिलेंगे, तोड़ लूँगा
बिना खिड़की खोले प्रभात के आतप को
अपने हिस्से में सबसे ज़्यादा बाँट लूँगा

किन्तु
बिना चोट सहे, बनने का सुख
बिना क्षार हुए, बसने का सुख
बिना धुँधुआए अपनी ओदी लकड़ी को
यज्ञ की अग्नि-सा जलने का सुख
                                    किसने पाया है ?
                                    किसी ने पाया है ?

अपना गुलाब खिलाने को
मेरे रूधिर को खाद बनने दो
अपना वसन्त लाने को
मेरे पतझर को सड़ने दो, गलने दो
अपना उदयाचल पाने को
मेरे असंख्य अभियानों को
गुमराह होने दो
हाथ मलने दो !

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