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सँजीवन / रामगोपाल 'रुद्र'

आदमीयत की जड़ें जिस ज़हर से सड़ने लगी थीं
सभ्यता की शाख़ से चिनगारियाँ झड़ने लगी थीं
अनगिनत हरियालियों की राख है जिसकी निशानी
और यह नीला पड़ा आकाश है जिसकी कहानी
वह जलन, वह ज़हर हरने जो चला अकसीर बनके
पच न पाया वह सँजीवन, पेट में पापी भुवन के!

अखिल संसृति की तपस्या देह धर जो आ गई थी
छाँह बन शिशुवत्सला की विश्‍वजन पर छा गई थी
सुरभि-पय-पीयूष स्रवता ही रहा जिसके हिये से
ताप गलता ही रहा करुणाभरण अपलक दिये से
स्वर्ग की ममता मिली ज्यों मर्त्य को मधुक्षीर बनके
पच न पाया वह सँजीवन, पेट में पापी भुवन के!

नव-नयन में उन्नयन-विज्ञान की क्या ज्योति जागी
पतित-तम-पथ पर पलटकर सभ्यता भागी अभागी
आदमीयत की वसीयत सृष्‍टि के श्रम की कमाई
प्रेम, करुणा, एकता क्या निधि नहीं हमने गँवाई
और, वह जीवन, मिला जो आखिरी तदबीर बनके
पच न पाया हाय! वह भी पेट में पापी भुवन के!

कोटि जग उर के सुलग जी-जग उठे, जिसके जगाए
हँस रहे वीरान भी फलवान बन जिसके लगाए
मृत्‍तिका की पुतलियों में फूँक जीवन की शिखाएँ
धो गया अपने लहू से जो धरातल की बलाएँ
जा बस सुर-कंठ में वह अब नयी तक़दीर बनके
पच न पाया जो सँजीवन, पेट में पापी भुवन के!