लिखा है तुमने ओ मरे मीत
सत्य ही तो लिखा है तुमने
मेरे मीत
कि मैं जो लिखती हूँ
दूसरी पाती में
उसे ही भूल जाती हूँ।
क्या कहूँ प्रियतम
पाती लिखते वक्त मैं अपने आप में रहूँ
तब न।
प्रेम में
बहस और तर्क की शक्ति
समाप्त हो जाती है
मिलने में
खुल कर बतियाने में
एक दूसरे के समर्पण में
जो पारिवारिक बाधा
भाई, पिता और माँ का डर
दीवार बन कर खड़ा हो जाता है
वह भय, बाधा और संशय
पाती लिखते वक्त कहाँ होता है।
रात भी अपनी होती है
मन भी अपना होता है
शब्द भी अपने होते हैं
और ये अक्षर
तुम्हीं ने कहा था
कि अक्षर ब्रह्म होता है
जिससे निकलती है
प्रेमरस की अमृत धार
कलकल करती
धूम मचाती।
बाधा-बन्धन से लड़ती
प्रियतम से मिलने
इतराती पहाड़ को तोड़ती
रास्ता बनाती।
प्रियतम
यह स्वीकार करो
कि प्रेम बच्चे की तरह
उच्छृंखला होता है
जो किसी भी समय
तोड़ दे सकता है किनारे को।
तुम यह बार-बार कहते हो
मैं आती नहीं हूँ
मैं मिलती नहीं हूँ
‘कब आओगी, कब आओगी’
बोलो प्रियतम, आ जाऊँ
माँ और पिता को त्याग कर
घर-द्वार ही छोड़ कर
पैर में घुँघरू बाँध कर मीरा की तरह
नांचती नांचती ?
मेरा संकल्प है मीरा बन जाने का
तुम्हारे प्रेम में विष पीना है
सर्प-दंश सहना है
और अपने नाम पर जग को हँसाना है।
मैं अपने इसी जन्म मैं
तुम्हें पा लेना चाहती हूँ मेरे मीत
मेरा मन कहता
हमदोनों का मिलन जरूर होगा
जन्म-जन्म की प्यासी आत्मा को
प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है।
नजर भर दूर-दूर तक फैले
ये अगहनी कैतका धान
लाल, पीली, उजली
दगदग सफेद साड़ी में सजी
नवेली दुलारी दूल्हन-सी
सर को झुकाए
हौले-हौले झूम-झूम कर
एक दूसरे से मिल-मिल कर
कानों में क्या फुसफुसाती है,
लगता है प्रिये
जैसे मेरे बारे में बतियाती हो।
घर-द्वार ही छोड़ कर
पैर में घुँघरू बाँध कर मीरा की तरह
नांचती नांचती ?
मेरा संकल्प है मीरा बन जाने का
तुम्हारे प्रेम में विष पीना है
सर्प-दंश सहना है
और अपने नाम पर जग को हँसाना है।
मैं अपने इसी जन्म मैं
तुम्हें पा लेना चाहती हूँ मेरे मीत
मेरा मन कहता
हमदोनों का मिलन जरूर होगा
जन्म-जन्म की प्यासी आत्मा को
प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है।
नजर भर दूर-दूर तक फैले
ये अगहनी कैतका धान
लाल, पीली, उजली
दगदग सफेद साड़ी में सजी
नवेली दुलारी दूल्हन-सी
सर को झुकाए
हौले-हौले झूम-झूम कर
एक दूसरे से मिल-मिल कर
कानों में क्या फुसफुसाती है,
लगता है प्रिये
जैसे मेरे बारे में बतियाती हो।
पहले से ही आकर रहते थे तुम
कि आज तो उगे हैं दो-दो चाँद
दोनों निर्मल, दोनों सुन्दर
दोनों मेरे ही प्राण !
आज
तुम्हारे उन्हीं सुवासित शब्द-गंध से
मतायी मैं एक बार फिर
यह सोच कर कि
आज तुम जरूर आओगे
मैं अगहन-पूस की
दलका देने वाली
बर्फीली ठंड में भी
जब कि शील हो रहे हैं चरण
सिसकारी मारती पछिया बह रही है।
लगता है
ठंड हड्डी में समा जायेगी
ऐसे में मैं निकल पड़ी हूँ
अपने घर से
एकदम बन संवर कर
कि आज तुमसे मिलन होने पर
मुझे लौटना ही नहीं है
तुम्हारे साथ ही जाना है।
प्रियतम !
आज यह चाँदनी भी
कितनी निष्कंटक हो गई है
ठंड दाँत न काट ले
इसीसे सभी घुसे हुये हैं
अपने-अपने घरों में
सभी को जाड़े का भय है
प्राणों का फिक्र है
अच्छा ही है
कि मेरा ही निष्कंटक रास्ता है।
नदी पार कर बहियारे-बहियार
खेतों की आरियाँ
सब कुछ को
बेसुध भटकती पार करती
मैं पहुँच गई हूँ
उसी पीपल वृक्ष के समीप
जहाँ प्रत्येक पूर्णिमा की रात को
तुम मुझसे मिलते थे।
क्या कहूँ प्रियतम
ओस से भींगे मेड़ों से
कितनी ही बार ससर कर
गिर गई मैं खेत में
चोट भी आई
लेकिन सच कहती हूँ मेरे प्रियतम
आह तक न की।
आओ
देखो न मेरे प्राण
मेड़ों पर गिरे हैं
दोनो ओर से ही
उसी तरह गदराये धान
जैसे कोई लड़की जुआन
बेफिक्र और मताई
झुकी हुई हो
अपने प्रियतम के कन्धे पर ।
कितनी परेशानियाँ
उठानी पड़ी है मुझे
इन गिरे-झुके धानों पर चलते
ओस से भीगी साड़ी
रह-रह कर
धानों के पौधे से उलझ जाती।
प्रियतम
यह प्रेम भी कितना अंधा होता है
जब जाड़े को भी
लग रहा हो जाड़ा
तब इसे न तो
जाड़-बतास लगती है
न तो इसे भूत-प्रेत का भय
न तो गाँव-टोले की लाज।
प्रियतम
यह पीपल का वृक्ष
इस पूरे बहियार में अकेला
भरे भौरों की तरह
अपने ऊपर चाँदनी को समेटे
लगता है
जैसे कोई विरही शापित यक्ष हो
रो-रो कर सुनाता रहे
अपनी विरह-कथा
न भुला सकनेवाली
प्रेम की व्यथा
कहीं तुम्हीं तो नहीं हो प्रियतम ?
नहीं
तुम नहीं हो सकते हो निर्मोही
कि क्या कहूँ,
तभी लगा
तुम्हीं आ रहे हो
और खुशी से
डोलने लगे मेरे प्राण।
और ऐसे ही में
मैं चिहा उठी
न चाहते हुए भी
न जाने क्यों
और दौड़ गई मैं तीरा कोनी
जल्दी ही पहुँचा देने वाली
राह से होकर
ताड़ वृक्षों से भरे
बांध पर चढ़ कर।
लेकिन हाय
तुम वहाँ नहीं थे
थकथका कर बैठ गई मैं
उसी जगह पर चुकमुक
घुटने में अपना मुँह छिपाए
न जाने कितनी देर
निराश मैं रोती रही
उसी जगह पर बैठी।
प्रियतम
यह वही पीपल वृक्ष है
हाँ
यह वही पीपल का वृक्ष है
जिसके नीचे तुमने
अपने समीप बिठाते हुए
तुमने मुझसे कहा था
कि ‘तुम्हारे’ ये अधर
मूंगे से भी अधिक लाल हैं
इन्हें तुम
किसी बनावटी चीजों से न रंगाना।
प्रियतम
आज वे ही मेरे अधर
आकर देखो न
चिन्ता और भय से
कितने श्याम पड़ गये हैं।
सावन से लेकर
अगहन तक
इस आशा में इस जगह
पाँचो सौ बेर मैं आई
कि बीती बातें भूल कर तुम आओगे
आओगे जरूर
और अब तो
यही लगता है कि
तुम नहीं आओगे
अब यहाँ किसलिए आऊँगी मैं भी
अब तो यह रास्ता भी
नाग की तरह डँसता है
तुम थे
तो सभी अपने ही थे।
पीपल का यही वृक्ष
गीत सुनाता था
आज यही
झबरे जटाओं वाला
कैसा औधड़ लगता है।
पूरे बहियार में
पसरी है उदासी
और रास्ता उसी तरह
अकड़ कर रह गया है
जैसे कोई बड़ा अजगर साँप
प्रियतम !
क्षण भर में तय होने वाली
पाव भर की यह राह
मेरे लिए बढ़ कर आज
हजारों कोस की हो गई है।
इतनी दूर
कैसे जाऊँगी मैं
आँखों में अंधेरा छा रहा है
माथा चकरा गया है
भुकभुकाती चाँदनी में
कुछ नहीं दिखता है मुझे
मन मंे जो बहती थी
सपनों की एक नदी
आज वह पूरी तरह से
सूख गई।
प्रियतम !
घर तो आखिर जाना ही पड़ेगा।
इसी पीपल की फेड़ी से सट कर
तुम खड़े रहते थे
आज हाथ जोड़ कर
मैं इस पीपल को प्रणाम करती हूँ
और उठाती हूँ
अपने हाथों में
उस जगह की धूल
जिस जगह तुम्हारे चरण
बराबर पड़ते रहे।
वही धूल
मैं अपने कपाल
और मांग में लगाए
उसी तरह पगलाई-सी
लौट कर जा रही हूँ
जैसे
बिहुला-विषहरी का भगत
बदहवास
अरदास बनकर जाता है।
मैं अपने को
यह शाप देती
कि जैसे पी-पी डाकती
पपीहा रोती है
बारहो मास
आज से वैसा ही मैं
रटती रहूँ जन्म-जन्म तक
सिर्फ तुम्हारा नाम
जब तक तुम
मुझे मिल नहीं जाते।
तुम नहीं आओ
या कहीं रहो तुम
मैं तो तुम्हारी ही हूँ
और रहूँगी भी तुम्हारी ही
जैसे वृक्ष से
छाल छूटे नहीं छूटती है
ठीक उसी तरह
एक बार जिसे
मन से स्वीकार कर लिया
एक बार जिसकी हो गई
मृत्यु तक
उसी की बन कर रहना है।
तुम्हारी ही
मजबूत बाँहों के बन्धन में
प्राण छूटेंगे मेरे
बस यही तो संकल्प है
तुम्हारी ही जांघ पर
अपना सर रखे
तुम्हारी आँखों से आँख मिलाते
तुम्हारे अभिराम चेहरे को निहारते
मरूँ मैं
बस इतनी ही तो
आकांक्षा है मेरी।
प्रियतम
अब तक जब-जब भी
मैंने सपना देखा है
संग-संग ही मरने का
संग-संग ही जीने का
संग-संग ही जलने का
चिता भी सजे मेरी
तो तुम्हारे ही बगल में।
प्रियतम
अब से पत्र में
नहीं कभी लिखूंगी
प्राणों पर घात की बातें
बस जीऊँगी तो तुम्हारे लिए
जिस तरह से होगा
काट-लूंगी
दुख के दिन-रात।
प्राण !
देखो तो
चाँद में वह काला-सा दाग
किस चीज का है।
लगता है
कोई घुटना में मुँह दबाए
चुकुमुकु बैठा हुआ है
पिया,
वह कोई और नहीं
वृक्ष के नीचे बैठी
चिन्ता में डूबी
तुम्हारी ही साँवरी है।
जन्म-जन्म से प्रतीक्षा में लीन
उदास-गुमसुम
तुम्हें भूलने में असमर्थ।
प्रियतम
मैं तुम्हें भूल भी नहीं सकूंगी
जो प्रेम को भूल जाता है
वह आदमी तो नहीं
तुम यह भी कह सकते हो
कि प्रेम में अगर
इतनी ही जलन और पीड़ा है
तो आदमी दिल क्यों लगाता है
क्यों उसे दग्ध करता है
क्या कहें प्रियतम
इस जलन
इस तड़प में भी
एक ऐसा आनन्द है
कि इसे चाह कर भी कोई
छोड़ कहाँ पाता है ?