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संक्रान्ति / बुद्धिनाथ मिश्र

ढाल रही ख़ुद को
बल्लू की भाषा में दादी ।

खल में कूट-कूट शब्दों को
चिपटा कर देती
अपने गालों में बल्लू की
साँसें भर लेती
देख रही पीछे, बचपन की
आशा में दादी ।

अपना क ख मिटा-मिटाकर
ए बी सी लिखती
अनजाने फल-फूलों का
अनुमानित रस चखती
नील कुसुम-सी फबती
घोर निराशा में दादी ।

गौरैया-सी पंख फुलाकर
नाच रही घर में
जैसा सुनती, वैसा गाती
बल्लू के स्वर में
गंगाजली डुबोती
नदी विपाशा में दादी ।