याद आता है समय 
तुमने कहा जब 
लो, चलो, हम आज मिलते है 
दो पानियों जैसे,
और हम तुम मिल गए 
गंगो –जमन से;
एक धारा बन गए थे ।
घुल गया 
तुम्हारे गौर वर्ण में 
मेरे कंठ का सारा नीलापन,
उतर आया 
हमारे भीतर आकाश का विस्तार 
और समा गया 
समुद्र की गहराई में ।
अब हम धारा नहीं रहे थे ,
समुद्र थे –
पानी ही पानी ,
नाम-गोत्र से हीन पानी;
न घट, न तट –
बस पानी ही पानी,
न देह ,न गेह –
बस पानी ही पानी,
न तुम, न मैं,
पानी ही पानी !