सरहदों में बंध जाए वह संगीत ही क्या!
भाषाओं की बेड़ियाँ जकड़ ले वह गीत ही क्या!
संगीत किसी संस्कृति, सभ्यता में क़ैद हो जाए
असंभव है।
कौन बाँध पाया है नदियों की कल-कल को?
कौन रोक पाया है चिड़ियों के कलरव को?
हवा की गुदगुदी से पत्तों की हंसी
भला कौन छीन पाया है!
संगीत साक्षात परब्रह्म है
साधन है परमानंद का।
पुराणों, श्रुतियों से
बहता-बहता माधुर्य रस का पान कराता
किसी न किसी रूप में जन-जन तक पहुँच ही जाता हैं।
संगीत की अपनी ही भाषा हैं
शब्द समझ में न भी आए
तब भी उसकी मिठास मिश्री-सी कानों में घुल गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है ।
झांझ, सुषिर, फूंक वाद्य व अन्य वाद्य यंत्र झंकृत कर देते हैं ह्रदय को,
मधुर संगीत कानों में नाद बन सुनाई देता है।
स्वर तो आख़िर वही सात
ठाट बन ठाठ से जन्म देते हैं नए-नए रागों को
अलग-अलग भाव जगाते अलंकारों से।
मोहनी विद्या है संगीत जिसमें एक अक्खड़ स्वर "प" भी है
कितने भी स्वर इधर से उधर बह जाए मगर "प" नहीं हिलेगा।
कभी शुद्ध कभी तीव्र में बदलकर बाक़ी स्वर नई नयी-नयी स्वर लहरियों को जन्म देते रहते हैं।
इतनी खूबसूरती है संगीत में शायद ही कोई इस मोहनी से बच पाया होगा।