मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता!
मैंने दी तुम्हें अग्नि
और राख हुए तुम
तुम्हें गंगा-प्रवाहित कर के भी
मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता!
नहीं रखी राख
नहीं रखी हड्डियां
नहीं बैठा रहा शमशान में
संजीवनी?
गंगा-प्रवाह संभावनाओं का अंत नहीं है!
मेरे भीतर भी
बहती है गंगा एक
और तुम्हारे भी
मैंने तुमको पाया
अपने भीतर
मैं मुक्त नहीं हुआ.....
मैं मुक्त हो भी नहीं सकता
ओ मेरे पिता!