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संताप / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’

ऊपर शोकाकुल देवराज,
बिगड़ेॅ नै बनलोॅ सकल काज।
वृहस्पति सें पूछै छै उपाय,
नै भेंट हुवे ई युगल भाय।

श्रीराम लखन कें जानै छै
गुरू भरत-स्वभाव बखानै छै।

”-निर्लोभ निशंक निरभिमानी,
रत धर्म, वेद, जन-मन गामी।

”-दृढ़ पाँव कभी भी नै रूकतै,
बाधा विघ्नोॅ आगू झुकतै।
जब प्रेमधार लहरावै छै
पत्थर झरना बनि गावै छै।

”-उर में भरलोॅ छै शक्ति-सार,
ऊ जन-मानस के कंठ-हार।
तैयार प्राण सब झेलैल,
भुज तत्पर रण में खेलैल।

-”मन राग-विराग सें उठलोॅ छै,
साधक है लय सें जुड़लोॅ छै।
छै भरत प्रजा के हितकामी,
प्रभु राम स्वयं अन्तर्यामी।

”-ऐ इन्द्र! प्रयास तोरोॅ निष्फल,
ई कुविचार त्यागोॅ तत्पल।
यदि कोप भरत के बोलि उठे,
सिंहासन तोहरों डोलि उठे।

”-ऊ मानव नै, अवतारी छै,
ओकरा ई धरती प्यारी छै।
ऊ नेह-नीर सें भरलोॅ छै,
ओकरा सें काल भी डरलोॅ छै।

”-अग्नि में नै डालोॅ हाथ अपन,
छै बहुत विषैला प्रखर तपन।
तों स्वार्थ-विवश निश्चय छोडोॅ
शुभ कार्य-सूत्र कें मत तोडोॅ।

”-लोकार्पित जेकरोॅ जीवन छै,
ओकरा की मृत्यु के गम छै।
तोहरोॅ संताप स्वार्थ भरलोॅ,
पद के विचलन सें तों डरलोॅ।“