Last modified on 3 दिसम्बर 2014, at 13:18

संदेह / विमल राजस्थानी

दिन थे सभी स्वर्ण- से, रातें, रजत लुटाने वाली
नहीं एक पल भी ऐसा था जिसमें बजी न ताली
पुलकाकुल उल्लास, हास, रस-रास, विलास घनेरे
जिस वासवदत्ता को प्रतिपल सदा रहे थे घेरे
जिसके इंगित पर सुरपति का छत्र डोल जाता था
जिसका मृदु स्वर सप्त-सिन्धु में सुरा घोल जाता था
जिसकी पद-पायल की छम-छम मत्त बना देती थी
जो सब को पल में दासों का दास बना लेती थी
पीड़ा, दुख, संत्रास, वेदना, व्यथा, शोक क्या होता
जिसने कभी न जाने, उसके उड़े हाथ के तोते
हो आसक्त स्वयम् नर पर जो नयी हो गयी नारी
था होनी का खेल, खेल में उलझ गयी बेचारी
 नियति व्यालिनी ने डँसने के पहले फण फैलाया
स्वतः फुदक फँस गयी विहंगिनि,ऐसा जाल बिछाया
शासन का आदेश, गुप्तचर चारों ओर लगे थे
वासव पर थी शंका उनको, सब रह गये ठगे थे
मूर्तिकार का शव क्षत-विक्षत,दोनों हाथ कटे थे
था प्रहार पद पर भी, पर वे अलग हुए न, सटे थे
परकोटे के निकट, भूमि में, शिल्पी गड़ा पड़ा था
उठती थी दुर्गन्ध भयानक, शव कुछ सड़ा-सड़ा था
जिसने भी देखर शव को, भीतर तक काँप गया था
वासव को तो सूँघ कि जैसे तक्षक साँप गया था