अत्यन्त सुपाठय
किन्तु निरर्थक सन्धिपत्र-सी
सन्ध्या फैली है सामने,
अपनी कठिन शर्तों के
रक्तिम ओज और स्निग्ध अन्धकार के
धब्बों के साथ
विन्ध्य की विशाल गोंडवाना चट्टान पर
सन्ध्या फैलती जा रही है...
विचित्र लिपि में लिखी,
जीवित रेंगते हुए अक्षरों को
बार-बार कतारों में सजाती हुई
गलित मात्राओं और हलन्तों को सॅंभालती
चरम पराभव की यह सन्ध्या
सूर्य को भी अस्त कहॉं होने दे रही है...
त्रिकाल में त्रिलोक में
वाइरस की तरह व्याप्त होती हुई सन्ध्या
बस सन्ध्या....
शायद अब न कभी आएगी रात
न रात के बाद आने वाला प्रात
सब कुछ स्थगित
सन्धिवेला अन्तहीन....
अब केवल हस्ताक्षर चाहिए
तुम्हारे रक्ताक्त हस्ताक्षर
आत्मसमर्पण का सुनहरा मौका...
कोई मुस्करा रहा है वक्र
चुभता हुआ
किन्तु दिख नहीं रहा कहीं कोई चेहरा
न चेहरे का आभास
वैसे
प्रतिकार की मुस्कान तो
अब भी बची है तुम्हारे पास
तुम्हारा अमोघ कवच...
चाहो तो अब भी
बने रह सकते हो तुम
अजेय और अनश्वर