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संध का फैलाव / मालती शर्मा

मैं फँसी हूँ
दीवारों की संधों में
वट-वृक्ष में अंकुर-सी
मेरे चारों ओर
जकड़ती हुई ऊँची ठोस दीवारें हैं
औपचरिक रूढ़ियों का
तंग होना फँसाव है!
पर
मैं ये दीवारें फोड़ दूँगी
मुझ में वह वृक्ष अंकुर की कोमल कठोरता है
मेरी नन्ही दृढ़ कोपलें
शताब्दियों के अंधे कुँओं की
दीवारें गिराकर
परंपरा के सुदृढ़ क़िलो की परिखा ढहा कर
फैलेंगी
कोपल-कोपल झालरी बनेगी
मैं छुई-मुई नहीं
जो तर्जनी देख सिमट जाती है
मैं बरगद हूँ
मुझे तुम्हारा पानी नहीं चाहिए
मेरी जटाएँ
युग-जीवन की धरती से रास खींचेंगी
मुझे पनपने के लिए बाड़ नहीं चाहिए
मेरे अपने परायो!
काटो कहाँ तक काटोगे
मैं तो छोटी-बड़ी जटाओं में
काल की धरती पर फैलती रहूँगी
असंख्य बीजों में
सभी मौसमों में
उगती रहूँगी
बढ़ती रहूँगी!