आज के दौर में
अपने यहाँ
यही सूचक संवेदना का
कर्ज़ मिलते विदेशों से
अपने घर के दरवाज़े-खिड़कियाँ खुलते उनके लिए
यह बढ़ने लगता ऊपर उछलने लपकने लगता
पर भ्रष्टों के ख़िलाफ़ उठे अगर आवाज़
कोई आन्दोलन हो कोई कार्रवाई
मुनाफ़ाख़ोरों पर आए कहीं से आँच
या परामुखी सत्ता का डोलते सिंहासन
मन्द पड़ जाता यह
गिरने पड़ने लगता
अचकचा जाता
यही एक अंक
जिसकी अभी चिन्ता
सरकार को
बाज़ार को
एक-दूसरे की फ़िक्र के सिवा
देश बढ़े न बढ़े आगे
भूख मिटे न मिटे
फ़सलें उगें कि जलें
पानी रहे न रहे
जनता के हक़ में ज़रूरी है
शासन प्रतिपल प्रयासरत है
लोगों की संवेदना कुन्द हो चाहे
संवेदी सूचकांक बना रहे...