शहर की युवती को देख कर
उठतें हैं उसके मन में प्रश्न अनेक
वह सोचती है इनका जीवन
कितना सुखमय होगा
इन्हे नही करना पड़ता होगा
अत्यधिक परिश्रम
इन्हे नही पड़ती होगी
ससुराल में मार,डाँट-फटकार
वह तो स्त्री है गाँव की
जाती है खेतों में
बोती है बीज/थापती है उपले
शरद्, बारिश, वसंत में
गाती है ऋतु गीत
जल भरे खेतों में/मखमली धानों को रोपते हुए
करती है ठिठोली सखियों संग
साँझ ढ़ले आती है खेतों से घर
सोंधी मिट्टी के दालान में बैठ कर
पकाती है रोटियाँ
दुलारती है द्वार पर बँधे /गाय और बछड़े
पोंछती है आँचल के छोर से पसीना
आत्मसंतुष्टि की दो रोटियाँ खा कर
खुली छत पर सोती है पुरवाई बयार में
शहर की युवती को देखकर
उठतें है उसके मन में प्रश्न अनेक
वह अनभिज्ञ है
शहर की स्त्री की दिनचर्या सेे
जो घर व कार्यालय, बच्चों व बाजार
बिजली व फोन के बिल
भरती हुई आती है घर
थककर सो जाती है
न बारिश, न ऋतुएँ
नही करती वह कुछ भी आत्मसात्
यन्त्रवत् जीवन चक्र में कटतें हैं दिन-रात
उसने नही देखा होगा
साँझ ढ़ले वृक्षों में समाते
तोतों के झुंड/पक्षियों के कलरव
साँझ का विस्तृत सुनहरा क्षितिज
बाँसों के झुरमुट में टँगा/पूर्णिमा का चाँद
चाँद से बातें करती गौरैया।
शहर की स्त्री को देख
उठते हैं उसके मन में प्रश्न अनेक।