किष्किंधा के विस्तृत अशान्त प्रांगण में,
कोलाहल था अति उग्र सर्व जन-गण में।
कर रहे भयानक द्वंद्वयुद्ध दो दुर्धर।
हो रहा घात-प्रतिघात अनन्त परस्पर।
दोनों थे परमवीर अतिरेक जुझारू।
मरने-मारने हेतु थे पूर्ण उतारू।
इस द्वंद्वयुद्ध में अरि भाई-भाई था,
पर एक, इस समर का उत्तरदायी था।
था नाम बालि, उसमें अपराजित बल था।
बल से विरक्त अद्भुत सम्मोहक छल था।
कोई प्रतिद्वंद्वी सम्मुख यदि आता था,
आधा बल उसका बालि निगल जाता था।
निश्चय यह कुटिल सिद्धि पाकर वह पापी।
था अखिल लोक में सबसे परम प्रतापी।
उस दुर्जय से, हर कोई भय खाता था।
उसके समक्ष, रावण भी थर्राता था।
उपरांत, बना वह अतिशय अत्याचारी,
धन-धाम छीन, भाई को किया भिखारी।
था बड़ा अधर्म और उसने कर डाला,
कर, सन्नत अनुजवधू सँग, निज मुँह काला।
भयभीत अनुज उस महाकाय से डरकर,
छिपकर रहता था एक गुफा के अन्दर।
भय से स्वजनों ने भी कर लिया किनारा,
उस कठिन समय में हनुमत बने सहारा।
हनुमत का उर निश्छल, पवित्र, पावन है,
आराध्य राम में रमा मनस्वी मन है।
सुग्रीव धन्य था पाकर प्रबल सहायक,
विश्वास हो गया, है भविष्य फलदायक।
निर्द्वन्द्व बालि, नित अनाचार करता था,
मन ही मन किन्तु, पवनसुत से डरता था।
वह उनका ईश्वरीय बल जान चुका था,
हनुमत हैं अजर अमर, वह मान चुका था।
सुग्रीव, मात्र हनुमत का सम्बल पाकर,
रहता था ऋष्यमूक पर्वत पर आकर।
सच है, विश्रांति नहीं यदि स्वर्ण सदन में,
सर्वथा उचित, रहना नितान्त निर्जन में।
निश्चय विपत्ति में वह पल भी आता है,
जीने का किन्चित लोभ न रह जाता है।
पर एक शक्ति, अपघात न करने देती,
जबतक सम्भव, यह पाप न करने देती।
विपरीत काल है प्रबल शत्रु जीवन का,
है विषम घात, इसमें व्यतीत हर क्षण का।
संकट में कोई देता नहीं दिखाई,
दिन ढलते संग त्याग देती परछाईं।
दुर्बल का संग निभाना बड़ा कठिन है।
यह दशा देख आती समाज पर घिन है।
ऐसे में यदि, दुर्बल का शत्रु प्रबल है,
भय से मर जाता सामाजिक सम्बल है।
फँस गया एक यदि किसी महासंकट में,
दर्शित हो कोई भी सह्यार्थ निकट में,
जीवित हो जातीं सभी मृतक आशाएँ।
हो जातीं भारहीन सारी विपदाएँ।
यदि त्रस्त एक से उसके परम निकट का,
संकेत एक होता आगत संकट का।
जो महामत्त वह जान न कुछ पाता है,
कारण उसका विवेक ही मर जाता है।
हम वृथा विपद में अविरल अश्रु बहाते,
या सुखमय क्षण में फूले नहीं समाते।
जो विधि प्रदत्त जीवन का गत्वर क्रम है,
उससे निस्तार, मात्र अन्तर का भ्रम है।
सुख-दुख दोनों का होता समय सुनिश्चित,
गतिशील काल करता इनको परिवर्तित।
वर्षोंपरांत नूतन परिवर्तन आया,
विधि ने, तमिस्र में दीपित पथ दर्शाया।
सुग्रीव, कोसता नित्य व्यथित जीवन को,
सहसा, अब खुश था पाकर राम लखन को।
जिनके दर्शन को तरस रहा था मन में,
ओ स्वतः आ गये उसके जीर्ण सदन में।
थी विदित राम की, उसको पूर्ण कहानी।
हैं परमश्रेष्ठ, बलवान, दयामय, ज्ञानी,
इन आर्यों को निज अंतर्व्यथा सुनाया।
नयनों में दुख का द्रवित सिंधु भर आया।
घिर गया उभय के मन में शोक घना-सा,
राघव को, उसका विपद लगा अपना-सा।
है सत्य, राम का भी संताप वही था।
मन में आभास हुआ सुग्रीव सही था।
राम ने मित्रवत नम्र निवेदन माना,
तत्काल बालि का वध करने को ठाना।
योजना बनी, सुग्रीव-बालि में रण की,
राघव के शर से, दूषित बालि मरण की।
सुग्रीव, बालि को रण निमित्त ललकारा,
ललकार युद्ध की बालि त्वरित स्वीकारा।
यह द्वंद्वयुद्ध उस घुड़की का प्रतिफल था,
लड़ रहे उभय, जिसमें जितना भी बल था।
सुग्रीव, बालि के तुल्य न कुछ दुर्बल था,
हाँ, दस हजार कुंजर का उसमें बल था।
पर सम्मोहित हो आधी शक्ति गँवाकर,
कुछ समय बाद हो गया सुस्त भरमाकर।
सुग्रीव इस दशा में कबतक लड़ पाता,
साहसपूर्वक उठता पुनश्च गिर जाता।
धौंकनी सदृश साँसें चलती थीं तन में,
दुर्बलता राम-राम करती थी मन में।
था विटप एक रण-मण्डल से कुछ हटकर,
थे खड़े राम उस तरु से लगभग सटकर।
तरकस से तीर निकाल चाप पर रखकर,
उसपर प्रहार को हुए राम ज्यों तत्पर,
रुक गया हाथ मन में संशय भर आया।
जागृत विवेक सीधा यह प्रश्न उठाया।
छिपकर ऐसे आघात न उचित रहेगा!
हे राम! विचार करो! क्या विश्व कहेगा?
अन्तस् में उदित हुए कुछ प्रश्न बड़े थे,
उनके समक्ष, बनकर अवरोध खड़े थे।
अबतक जितने पतितों पर बाण सधा था,
प्रत्यक्ष युद्ध करके ही उन्हें वधा था।
छिपकर प्रहार, अपकर्म कहा जाता है!
कर्ता अतिशय कठोर दुष्फल पाता है!
मन की पुकार थी, तनिक न देर लगाओ!
कहता विवेक, छिपकर मत तीर चलाओ!
सह्यार्थ मित्र के कुछ भी करें सही है,
पर व्याध कर्म वीरोचित कभी नहीं है।
पर हाय! बालि के सम्मुख क्यों मैं जाऊँ?
क्यों विधिप्रदत्त वर का सम्मान मिटाऊँ?
तरुवर का लेकर ओट प्रहार करूँगा।
इस खल का इसी भाँति संहार करूँगा।
सुग्रीव मुक्त हो जायेगा हर दुख से।
दण्डक वन में सब लोग रहेंगे सुख से।
कोई निकृष्ट, अभिमानी, महाछली हो,
दुःशक्ति प्राप्त कर यदि बन गया बली हो,
दे रहा स्वजन को दुख निज अर्जित बल से,
उसका विनाश है पूण्य, भले हो छल से।
है महा पतित, जबरन अबला का भोगी।
जग में है वह जघन्य अघ का अभियोगी।
ऐसा अभद्र, हो दृश्य न भूमण्डल पर,
उसका विनाश, होता सदैव जन हितकर।
है दोष न कुछ, कुत्सित के प्राण हरण में,
छलपूर्वक उसका बध हो या हो रण में।
बच गया कहीं तब और अधर्म जगेगा।
विपरीत मुझे भी भीषण पाप लगेगा।
अविवाहित कन्या हो या परिणीता हो,
रूमा हो या मेरी कलत्र सीता हो।
अबलाओं के सँग जो अपराध करेगा,
है सत्य शपथ, असमय वह नीच मरेगा।
तृण भर सम्मान न है जिसमें नारी का।
कट गया शीश यदि उस अत्याचारी का।
निश्चय ही उसको पुण्य कहा जायेगा।
इस कृति से धर्म अलौकिक सुख पायेगा।
सामाजिक स्वीकृति एक कहाँ रहती है?
जनता क्षण-क्षण में भिन्न बात कहती है।
कहते, प्रहार अनुचित होता नारी पर,
पर कहाँ ठीक? नरभक्षिणि हत्यारी पर।
हो शूर्पनखा, ताड़का सदृश यदि नारी,
जिनके भय से कंपित मानवता सारी।
जिनसे, अपार शोणित की धार बही है,
उनका वध तृण भर भी अपकार नहीं है।
जिस यश-अपयश के भ्रम में आज पड़ा हूँ,
या जिस दोराहे पर मैं आज खड़ा हूँ,
संशय का जो नूतन संयोग बना है,
निश्चय ही! एक कलंक आज लगना है।
संशय की झंझा में यदि बालि बचेगा,
कल एक नया इतिहास समाज रचेगा।
ऐसा कि, दशानन मरे बालि के द्वारा,
हो गई सन्धि, सुग्रीव बना बेचारा।
भावी भविष्य में लोग गरल घोलेंगे।
कुछ लोग, बात को ऐसे भी बोलेंगे।
सुग्रीव संग जो घटा, अनन्त बुरा था,
मित्र के पीठ पर मारा गया छुरा था।
वध करने पर, प्रसार होगा कुछ ऐसा,
आक्रमण अनैतिक था आखेटक जैसा।
लोगों की जिह्वा स्वल्प न मेरे वश में।
मैं व्यर्थ फँसा रहता हूँ यश-अपयश में।
वर्णित जो पाप पुण्य की परिभाषाएँ,
सबकी मर्यादित हैं अखण्ड सीमाएँ।
संरक्षण इन्हें मिले सर्वथा उचित है!
हाँ, निहित सुकृति में ही सामाजिक हित है।
दुर्जय होने का वर अधर्म क्यों पाता?
जिसके प्रभाव में बस उत्पात मचाता।
ऐसे निकृष्ट पर देव कृपा क्यों करते?
जिसकी अनीति से भले मनुज हैं डरते।
सारी मानवता जिनमें मृत हो जाती।
किसलिए प्रकृति उनको दुर्जयी बनाती?
किसलिए धरित्री पर वे निर्दय आते?
जिनसे हर प्राणी केवल दुख ही पाते।
जिसने अधर्म को ही सर्वोपरि माना।
है व्यर्थ उस पतित पर प्रसून बरसाना।
जिस दुर्जन को निर्दयता ही प्यारी है।
वह केवल मृतदण्ड का अधिकारी है।
वसुधा पर केवल वही सूरमा आयें।
बन्जर जमीन पर प्रेमिल पुष्प खिलायें।
सर्वत्र समीरण सन-सन बहे सुगन्धित।
सम्पूर्ण धरित्री का पट हो आनन्दित।
अन्तस्तल में जो आंदोलित संशय है,
आधारहीन, कल्पित सामाजिक भय है।
मन बना विचार त्यागअन्तिम निर्णायक।
आक्रमण हेतु अब उग्र हो उठा शायक।
चिंतना व्यर्थ, अब सीधा वार करूँ मैं।
तत्काल पतित को कालाहार करूँ मैं।
अब उचित न है तृण भर भी देर लगाना।
अतिशीघ्र इसे यमपुर को करूँ रवाना।
हो गया युद्ध था एकांगी कुछ क्षण में।
होकर अशंक था बालि गरजता रण में।
निष्क्रिय सुग्रीव धरा पर चित्त पड़ा था।
सम्मुख दहाड़ता बालि अशंक खड़ा था।
दुर्बल भाई को सतत घसीट रहा था।
निर्दयता पूर्वक उसको पीट रहा था।
मन में दुर्जन के किन्चित दया न आई।
वर्ताव कर रहा जैसे क्रूर कसाई।
अविराम राम की तनी हुई भृकुटी थी।
उन्मत्तक खल पर अविचल दृष्टि टिकी थी।
तत्काल उन्होंने उर अन्तर को भींचा।
शर चढ़े चाप की डोर कान तक खींचा।
छुटते ही शायक सरल अकल्पित लय में,
उद्दण्ड बालि के जाकर धँसा हृदय में।
आकस्मिक तीव्र चोट खाकर, घबराकर,
चिंघाड़ मार, तत्क्षण गिर गया धरा पर।