खाना खाते वक्त
गिर पड़ता है मुँह का कौर
पता नहीं कौन भूखा है ?
अपनी संस्कारजन्य पीड़ा
परेशान करती है
अभावों को रौंदता हुआ
घाटी तो चढ़ आया
पर बार-बार देखता हूँ पीछे
बार-बार होता हूँ उदास।
खाना खाते वक्त
गिर पड़ता है मुँह का कौर
पता नहीं कौन भूखा है ?
अपनी संस्कारजन्य पीड़ा
परेशान करती है
अभावों को रौंदता हुआ
घाटी तो चढ़ आया
पर बार-बार देखता हूँ पीछे
बार-बार होता हूँ उदास।