सकल सदगुन नित करत निवास।
राधा-हृदय स्याम-सेवन-हित, मन भर अमित हुलास॥
‘रस’ नित रहत स्वयं लोलुप बनि, जेहि हिय करत बिकास।
उछरत रस-समुद्र तहँ अविरत, नित नव लिएँ मिठास॥
तेहि राधा-हिय-रसनिधि-रस सौं लीला बाह्य बिलास-
करत स्यामघन लीलामय नित, करि सुचि राग प्रकास॥