Last modified on 14 दिसम्बर 2009, at 15:46

सखि कौन / माखनलाल चतुर्वेदी

श्यामल प्रभु से, भू की गाँठ बाँधती, जोरा-जोरी,
सूर्य किरण ये, यह मन-भावनि, यह सोने की डोरी,
छनक बाँधती, छनक छोड़ती, प्रभु के नव-पद-प्यार
पल-पल बहे पटल पृथिवी के दिव्य-रूप सुकुमार!

कलियों में रस-संपुट बनकर, बँधी मूठ बनमाली,
खुली पँखड़ियाँ, श्याम सलोने भौंरों से शरमाती!
कली-पंख, किरणों से लगकर, खिल मनमाने होते,
किरन नित नई, फूल किन्तु गिर रोज पुराने होते।

सो जाता है जगत किन्तु तारे देते हैं पहरा,
इस छाया में जाग्रति का गहरा गुमान है ठहरा।
कैसे मापूँ किरनों के चरणों, ऊँची गहराई,
कैसे ढूँढूँ, कहाँ गुम गई, तारक सेना पाई,

सपनों से ये तारे श्यामल पुतली पर भर आते,
छोड़े बिना निशान पाँव के प्रातः ये खो जाते।
लाख-लाख किरणों की आँखों बैठा ऊपर मौन,
नीचे मेरे खिलवाड़ों को निरख रहा सखि कौन?

साँस-साँस में भर आता-सा फिर आता-सा मौन,
स्वर में गूँथ इरादे, जी में गा उठता है कौन?
स्वर-स्वर पर पहरा देता कुछ लिख लेता-सा मौन,
मेरे कानों में वंशी-रव लाता है सखि कौन?

सुन्दरता पर बिकने से, करता क्षण-क्षण इनकार,
मेरी नासा पर सुगन्ध बन आता किसका प्यार?
दो से एक, एक से दो होने की दे लाचारी,
कौन नेह के खग-जोड़े की करता है रखवाली?