सखी! जनि करौ अयानी बात।
प्राननाथ की निंदा करि जनि करौ हिए आघात॥
मेरे जीवन के जीवन वे सुखी रहैं दिन-रात।
मोय सुनावौ तुम तिन के गुन मधुर, कलित कुसलात॥
दूर रहैं या पास, न मो तैं वे पलहू बिलगात।
अंतर मेरे बसे निरंतर रहत, न इत-उत जात॥
ताप जु रहै नैकु मो अंतर, जरैं सुकोमल गात।
तातैं रहैं मोद-सीतलता, सुख नहिं हिएँ समात॥
मोय दुखी जो देखैं छिनहू, रहैं सतत बिललात।
तिन कें सुख सखि! मेरे हिय नित सुख-सागर लहरात॥